अफगानिस्तान में शांति लाने की कोशिश सिर्फ एक सियासी स्टंट है?

अफगानिस्तान
अफगानिस्तान में शांति लाने की पहल एक ऐसी सियासी शतरंज है जहां कई खिलाड़ी एक साथ चालें चल रहे हैं. पाकिस्तान, रूस, ईरान और चीन जैसे देश एक साथ दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका और नाटो है जो इस मसले को सुलझा कर अफगानिस्तान से निकलना चाहते हैं, लेकिन बाहर निकलने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल है. अभी भी अमेरिका के 6 से 7 हजार सैनिक अफगानिस्तान की सरजमीन पर हैं. वापसी से पहले अब अमेरिका की तालिबान के साथ बातचीत की प्रक्रिया भी जोर पकड़ चुकी है.

तालिबान के साथ जब अमेरिका पिछली बार बातचीत की मेज पर बैठा था तब काबुल तालिबान के ही हाथों कराए बम धमाके से दहल उठा था. ये तालिबान का साफ संकेत था कि अफगानिस्तान में तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी पकड़ मजबूत है और वो जब चाहें, जहां चाहें धमाके करा सकते हैं.

इस बार भी अफगानिस्तान में अमेरिका के अफगान मूल के विशेष शांति दूत जलमे खलीलजाद के नेतृत्व में अफगान तालिबान से दोहा में बातचीत जारी है. पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैसल ने कहा कि शांति वार्ता की ये पहल पाकिस्तान की ओर से की गई है. जाहिर है कि इनकी भागीदारी के बगैर शांति वार्ता संभव नहीं. इस बीच अफगान तालिबान ने इस अमेरिकी शर्त को मान लिया है कि वो ISIS और Al-Qaeda से संबंध नहीं रखेंगे. ऐसी ही एक पहल रूस द्वारा कुछ महीनों पहले की गई थी बिना किसी खास मकसद के.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इस शतरंज खेल में दो और खिलाड़ी हैं जिनके इस क्षेत्र में हित वक्ती नहीं, हमेशा के लिए हैं, वो हैं भारत और अफगानिस्तान सरकार. भारत ने अफगानिस्तान की 3 अरब डॉलर की मदद की है जिसमें बुनियादी ढांचा खड़ा करना, सड़कें बनाना, बैंक, टेलीकम्युनिकेशन जैसी जरूरतें हैं. साथ ही ईरान का चाबहार बंदरगाह बनाकर, पाकिस्तान को बाईपास कर बुनियादी चीजों और खाद्य सामग्री की सप्लाई का रास्ता निकला. लेकिन एक क्षेत्र जहां भारत ने मदद नहीं की, जिसकी अमेरिकी सरकार उम्मीद लगाए बैठे थे, और जिस पर मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तंज किया वो है जमीन पर सैनिक भेजने का, अफगानी जमीन पर भारतीय फौज की तैनाती. हालांकि भारतीय पैरामिलिट्री फोर्सेज जैसे ITBP और CISF जैसे सुरक्षाबल वहां भारत द्वारा बनाए इमारतों, लाइब्रेरी, स्कूल, कॉलेज की सुरक्षा में तैनात हैं.

हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप ये कहते हैं कि भारत अफगानिस्तान में कहां है, लाइब्रेरी बनाना काफी, पर ट्रंप ये भूल गए कि जब वो खुद ही अमेरिकी फोज को वहां से निकलने के लिए तत्पर हैं तो फिर भारत से ये उम्मीद करना कि वो वहां सेना तैनात करे कहां तक जायज है. भारत ने वहां सेना नहीं भेज कर अपने हित में समझदारी भरा फैसला लिया है. क्योंकि पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे छद्म युद्ध को शायद अमेरिका समझ नहीं पाया, या समझना नहीं चाहते था. अमेरिका ने पाकिस्तान को जो 30 अरब की आर्थिक मदद दी उसे पाकिस्तान ने अफगानिस्तान और भारत जैसे देशों के खिलाफ ही इस्तेमाल किया.

हक्कानी ग्रुप और अफगान तालिबान और मजबूत हुए, ये हमेशा से पाकिस्तान सरकार के समर्थन से चलते रहे. पाकिस्तान एक तरह से इंतजार में था कि अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर हो और इस इंतजार में वो अपने अंदरूनी आतंकी गुटों पर कड़ी करते रहे. अभी भी IMF/अमेरिका से आर्थिक मदद कम की गई है, लेकिन दबाव नहीं बन पा रहा है क्योंकि उसका दूसरा सहयोगी सऊदी अरब और साथ ही संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उसकी मदद के लिए खड़े हैं.

रूस पर अमेरिका ने आर्थिक प्रतिंबध लगाया है और दूसरा वो सीरिया में आमने-सामने हैं. सीरिया में बशर अल अस्साद रूस के समर्थन से अमेरिका से टकराते रहे. वहां रूस की मजबूत मौजूदगी और उसके हथियार हैं. साथ ही रूस की दिलचस्पी इसमें है कि अमेरिका अफगानिस्तान से निकले.

ईरान पर भी अमेरिकी प्रतिबंध हैं. खाड़ी में शिया-सुन्नी खेमे में अमेरिका हमेशा सुन्नी खेमे के साथ रहा है. बशर भी अलावैद शिया हैं और उन्हें भी हिज़बोल्लाह और ईरान का समर्थन है, जो एक शिया खेमा है.

दूसरी तरफ तालिबान के साथ शांति वार्ता में रूस और ईरान का पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखना, इनकी अमेरिका विरोधी नीति की मजबूरी भी हो सकती है, क्योंकि ये जानते हैं कि अमेरिका के निकलने के बाद अगर ये आतंकी हमले हुए तो बड़ी तादाद में शरणार्थी सेंट्रल एशिया और ईरान में पनाह लेने आएंगे. अफगानिस्तान में हजार समुदाय ईरानी मूल के हैं, और उत्तर अफगानिस्तान में सेंट्रल एशियाई मूल के हैं जैसे ताजिक और उजबेक. लेकिन बहुसंख्यक आबादी पश्तून मूल की है. इसलिए माना जाता है कि नेतृत्व पश्तून हाथों में ही होगी, अभी भी ऐसा ही है. हामिद करजई पश्तून हैं, अशरफ गनी भी पश्तून हैं..

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