SP-BSP की करारी हार के बावजूद मंथन के मूड में नहीं हैं मायावती

 
नई दिल्ली 

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के अश्वमेध का रथ रोकने और अपने सियासी वजूद को दोबारा पाने से लिए बसपा अध्यक्ष मायावती ने सपा से सारी दुश्मनी भुलाकर हाथ मिलाया. इसके बावजदू नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में सपा-बसपा गठबंधन पूरी तरह से धराशाई हो गया है. इस करारी हार के बाद सपा में मंथन का दौर शुरू हो गया है. वहीं, मायावती खामोशी अख्तियार किए हुए बैठी हैं और हार की समीक्षा के लिए मंथन करने के मूड में नहीं दिख रही हैं.

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से बीजेपी गठबंधन सूबे में 64 सीटों के साथ वापसी की है.  बीजेपी 62 और उसकी सहयोगी अपना दल 2 सीटें जीतने में कामयाब रही. जबकि दूसरी ओर सपा-बसपा गठबंधन को महज 15 सीटें ही जीत सकी है. इनमें बसपा को 10 और सपा को 5 सीटें मिली हैं. जबकि दोनों दलों ने 50 से ज्यादा सीटें जीतने का मंसूबा पाल रखा था. यही वजह रही कि चुनाव नतीजे से पहले मायावती ने खुद को पीएम का उम्मीदवार बताया था.

लोकसभा चुनाव में मिली हार से सपा ही नहीं बल्कि विपक्ष में उथल-पुथल मची हुई है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हार के चलते जहां अपना इस्तीफा देने की जिद पर अड़े हुए हैं. वहीं, बिहार में आरजेडी हार के कारणों का पता लगा रही है. इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव संगठन में कई तरह के बदलाव करने के मूड में हैं. प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई और नेताओं की छुट्टी कर जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो देने की दिशा में मन बना रहे हैं.

वहीं, बसपा सुप्रीमों मायावती ने अपने जीते हुए सभी 10 सांसदों के साथ बैठक कर उनके साथ आगे की रणनीति पर चर्चा किया. लेकिन लोकसभा चुनाव में हार की वजह को तलाशने के लिए किसी तरह की कोई बैठक नहीं किया है. इसके पीछे राजनीतिक जानकारों की मानें तो सपा-बसपा गठबंधन ने भले ही सपा को नुकसान हुआ है, इसीलिए वह मंथन कर रहे हैं. जबकि बसपा को सीधा फायदा हुआ है. यही वजह है कि मायावती खामोशी अख्तियार किए हुए हैं. दबी जुबान से कई नेता कहते हैं कि मायावती को घाटा कहां हुआ है कि वह समीक्षा करें वह तो संसद में शून्य से 10 पर पहुंच गई हैं. उन्होंने अपनी हार मानी कहां है कि वह इसकी समीक्षा करें. 

दरअसल 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से लगातार बसपा का ग्राफ गिरता जा रहा था. हालत यह हो गई थी कि 2014 के लोकसभा में बसपा खाता भी नहीं खोल सकी थी. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा महज 19 सीटें ही जीत सकी थी. इस तरह 2019 का लोकसभा चुनाव बसपा के लिए एक बार फिर नई उम्मीद लेकर आया है. पार्टी की सीटें बढ़ने के साथ-साथ वोट शेयर में भी बढ़ोतरी हुई है. जबकि सपा का वोट 4 फीसदी कम हो गया है. 

हालांकि जातीय वोटर शेयर के लिहाज से देंखे तो बीजेपी दलित मतों को अपने साथ जोड़ पाने में सफल रही है. बीजेपी गैर-जाटव दलित वोट एकमुश्त बीजेपी के साथ गया है. इसके अलावा अतिपिछड़ा वोट भी बीजेपी के साथ मजबूती के साथ जुड़ा रहा. यह मायावती के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, क्योंकि इन्हीं वोटर्स के सहारे बसपा सूबे में पूर्ण बहुमत के साथ 2007 में सरकार बनाने में सफल रही थी. लेकिन इसी के बाद बसपा के वोटबैंक में सेंध लगी है, जो लगातार जारी है.

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