BJP के खिलाफ विपक्ष को बनानी होगी लोकल स्ट्रैटिजी

 नई दिल्ली 
लोकसभा चुनाव को अगर किसी खेल के मुकाबले की तरह देखें तो हाफ टाइम बीत चुका है। बीजेपी नेता भी अपनी पार्टी के फेवर में साफ रुझान की बात नहीं कर रहे हैं। इसके बजाय वे पीएम नरेंद्र मोदी के पक्ष में अंडरकरेंट की बात कर रहे हैं। 
 
वोटर इस बार खुलकर बात नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर 2014 में वोटर न ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए से अपनी नाखुशी छिपा रहे थे, न ही उन्होंने मोदी को देखकर पैदा हुई अपनी खुशी छिपाई थी। पांच साल पहले मोदी की रैलियों से लौटने वाला हर शख्स मोदी-मोदी कहते हुए लौट रहा था। इस बार ऐसा माहौल नहीं दिख रहा है। 

साल 2002 से मोदी नेशनल लाइमलाइट में आए थे। उस वक्त से लोग या तो उनसे मुहब्बत कर रहे हैं या नफरत। संभावना इस बात की है कि इस बार का नतीजा यह बताए कि मोदी के सपोर्ट में कोई कमी नहीं हुई है। हालांकि ऐसा नतीजा आने पर वोटरों की मौजूदा खामोशी का मतलब यह होगा कि मोदी का विकल्प न होने के कथित दावे पर लोगों ने भरोसा कर लिया। 

बीजेपी के पक्ष में पहले वाला उत्साह न दिखने की एक और वजह है। पुलवामा/बालाकोट के बाद पार्टी ने राष्ट्रीयता और हिंदुत्व पर फोकस बढ़ाया है। उसके टारगेट पर पाकिस्तान है और भारत में कथित 'पाकिस्तान समर्थक।' मोदी ने खुद इस अटैक की कमान संभाली है। मोदी ने दलील दी कि राहुल गांधी वायनाड से चुनाव इसलिए लड़ रहे हैं क्योंकि उस निर्वाचन क्षेत्र में हिंदुओं की संख्या कम है। प्रज्ञा सिंह ठाकुर को उम्मीदवार बनाना इस मुहावरे पर जोर देने का एक और सबूत है। 

2014 के बाद माहौल तेजी से बदला है। हर किसी पर बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद को थोप दिया गया है। इसके बावजूद धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में गहरे बैठे पूर्वग्रह को सार्वजनिक करने में लोग हिचकते हैं। मोदी के पक्ष में अगर वाकई अंडरकरेंट होगा तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि मेजॉरिटी कम्युनिटी ने 'अपना काम खामोशी से अंजाम' देने का निर्णय किया है। इससे देश के विविधता भरे सामाजिक तानेबाने को और बड़ा खतरा है। 

मोदी ने कई भाषणों में यह जताने की कोशिश की है कि देश को तभी बचाया जा सकता है जब उनके हाथ में सरकार हो और सैन्य विकल्प आजमाने की उन्हें खुली छूट हो। उनके कैंपेन ने अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को संदेश दिया है कि वे राष्ट्रीय दायित्व के लिए अपनी बात को दूसरे पायदान पर रखें। मोदी ने केवल एक रियायत दी है। और वह है अक्षय कुमार के रूप में। इस इंटरव्यू का मकसद मोदी का एक दूसरा चेहरा दिखाना था और उन लोगों को आश्वस्त करना था, जो सबकुछ अपने हाथ में रखने की अपने नेताओं की प्रवृत्ति से दुविधा में हैं। 

बीजेपी जहां अपनी बात पहुंचाने में हर उपाय आजमा रही है, वहीं कांग्रेस एक दमदार बात सामने रखने के बावजूद बेतरतीबी में उलझी दिख रही है। कांग्रेस का न्यूनतम आमदनी की गारंटी का नारा वोटरों को लुभाने का दमखम रखता है। राजीव गांधी 1989 में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जमातों को लुभाने के दो पाटों के बीच फंस गए थे तो उनके बेटे राहुल यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि 2019 में कौन सी बात उनकी प्राथमिकता में ऊपर है यानी मोदी को हराना, पार्टी को मजबूत करना या प्रधानमंत्री बनने की राह पर बढ़ना। 

ममता बनर्जी ने जबसे एक के खिलाफ एक को लड़ाने का नारा दिया, उसके बाद से यूपी, वेस्ट बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में करीब 200 सीटों पर कांग्रेस की संभावना कमजोर पड़ गई क्योंकि दूसरे विपक्षी दलों से कांग्रेस का सीट साझेदारी का समझौता नहीं हो सका। दिल्ली में शीला दीक्षित को कमान देकर और प्रियंका गांधी को पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल करते समय यह ऐलान कर कि पार्टी अपने भविष्य को ध्यान में रखकर रणनीति बना रही है, कांग्रेस ने मौजूदा मकसद यानी मोदी को हराने से ध्यान हटा लिया। बीजेपी अगर सत्ता में दोबारा आई तो कांग्रेस के लिए लंबी अवधि की अपनी रणनीति को धार देना भी मुश्किल हो सकता है। 

बाकी सीटें वे हैं, जहां बीजेपी अपना आंकड़ा बढ़ाने की उम्मीद कर रही है। इन राज्यों में राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ हिंदुत्व की चाशनी का बीजेपी का फॉर्मूला लोगों को रास आ सकता है। कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों को बीजेपी के इस फॉर्मूले को अगर ध्वस्त करना हो तो उन्हें सीट दर सीट अपनी रणनीति बनाकर कदम उठाना होगा। 
 

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