यूपी की सियासत में धर्म का ब्रह्मास्त्र, आस्था के आसरे हैं नेता

 
लखनऊ 

पंथनिरपेक्षता की बुनियाद पर सियासत का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया मायावती-अखिलेश यादव व अजित सिंह की संयुक्त चुनावी रैली का आगाज 7 अप्रैल से देवबंद में होगा। एसपी के राष्ट्रीय सचिव राजेंद्र चौधरी की ओर से जारी प्रेसनोट की भाषा कुछ यूं थी 'पश्चिमी उत्तर प्रदेश से इन संयुक्त रैलियों की शुरुआत नवरात्र के पवित्र दिनों में होगी। ' दरअसल, 2019 के जंग के आगाज के बीच पक्ष हो या विपक्ष इस बार सबने अपना मत्था 'आस्था' की चौखट पर टिका रखा है।  
यूपी की सियासत में आस्था के ब्रह्मास्त्र का सियासी असर बहुत गहरे से नापा जा चुका है। सियासी रणनीति में इसके सटीक इस्तेमाल से बीजेपी अर्श पर पहुंच चुकी है। वहीं पंथनिरपेक्षता के नाम पर इसके मुखर विरोध के चलते अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का तमगा लेकर विपक्ष फर्श पर। यही वजह है कि इस बार लोकसभा चुनाव में विपक्ष 'नरम हिंदुत्व' की सियासत साधने के लिए आस्था के मुखर प्रदर्शन से कहीं भी परहेज नहीं कर रहा है। 

विकास को आस्था का 'अमृत' 
राममंदिर आंदोलन से हुए भाग्योदय के बाद बीजेपी ने विकास को चुनावी चेहरा तो बनाया लेकिन उसे आस्था के 'अमृत' से प्रभावी बनाने की रणनीति नहीं छोड़ी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले अयोध्या में राममंदिर आंदोलन मुखर हुआ, हालांकि, तत्कालीन असर नहीं छोड़ पाया। लेकिन, इसके जरिए सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर बढ़ रहे विपक्ष की धार कुंद करने का मौका जरूर मिल गया। 

ताकि 'ध्वस्त' हो सके ध्रुवीकरण 
जेएनयू के प्रो. विवेक कुमार कहते हैं कि आस्था का सियासी प्रयोग बीजेपी ने मुखर तौर पर किया और उसे इसका फायदा भी मिला। विपक्ष को महूसस हुआ कि उसे इसका घाटा हो रहा है। बल्कि, हिंदुत्व के मसलों से परहेज ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोपों को भी पुख्ता किया। इसलिए ध्रुवीकरण के काउंटर के लिए अब विपक्ष भी खुलकर आस्था का प्रदर्शन कर रहा है। इससे बीजेपी पर दबाव भी बढ़ा है, जिसके चलते उन्हें राष्ट्रवाद सहित दूसरे मसलों पर शिफ्ट होना पड़ रहा है। हालांकि, बीजेपी प्रवक्ता डॉ. समीर सिंह कहते हैं कि आस्था हमारे लिए कभी सियासत का मुद्दा नहीं रही। मोदी-योगी सरकार ने जाति व मजहब देखकर योजनाएं नहीं पहुंचाई। विपक्ष को यह अब याद आ रहा है। 
 

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