भारत के इस कदम से परेशान है ड्रैगन, अब उत्तराखंड में चीन से लगी सीमा पर बढ़ सकता है तनाव

 
नई दिल्ली

भारत और चीन के बीच लद्दाख में पिछले एक महीने से जारी तनाव अब दोनों देशों की लगती दूसरी सीमा तक फैलने लगा है। कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में चौतरफा घिरा पेइचिंग उत्तराखंड से लगी सीमा पर नया पैंतरा चलने की कोशिश की है। इर राज्य के लिपुलेख के पास बनाए गए एक टेंपररी स्ट्रक्चर को लेकर अब ड्रैगन ने आपत्ति जताई है। सीमाई इलाकों में भारत के सड़कों पर चीन नाक भौं सिकोड़ रहा है। भारतीय सीमा में बनाए गया यह स्ट्रक्चर सीमा से करीब 800 मीटर अंदर है। सूत्रों के मुताबिक, जब भारत ने कुछ दिनों पहले लिपुलेख तक जाने वाली एक सड़क का उद्घाटन किया, उसके बाद से ही चीन टेंपरेरी स्ट्रक्चर को लेकर सवाल उठाने लगा। इसके बाद से ही दोनों तरफ सैनिकों की पेट्रोलिंग भी बढ़ गई है।
 उत्तराखंड में लिपुलेख दर्रे को पार कर चीन की सीमा में प्रवेश करते हैं और यहां से कैलास मानसरोवर यात्रा इसी रास्ते से जाती है। साथ ही भारत-चीन के बीच होने वाले व्यापार के लिए भी लिपुलेख दर्रे से ही व्यापारी चीन की तकलाकोट मंडी जाते हैं। सूत्रों के मुताबिक, लिपुलेख के पास भारत की तरफ एक टेंपरेरी शेल्टर बनाया गया है, जो यात्रियों और व्यापारियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाया गया है। लेकिन चीन ने इस टेंपरेरी शेल्टर पर भी आपत्ति जताई है।
 
भारत पड़ोसी चीन को ध्यान में रखकर अब चौतरफा तैयारी करने में जुटा हुआ है। 17000 फुट की ऊंचाई पर लिपुलेख दर्रा आसानी उत्तराखंड के धारचूला से जुड़ जाएगा। इसके बाद भारतीय चौकियों तक पहुंचना अब बेहद आसाना हो जाएगा। इस सड़क की लंबाई 80 किलोमीटर है। मानसरोवर लिपुलेख दर्रे से करीब 90 किलोमीटर दूर है। पहले वहां पहुंचने में तीन हफ्ते का समय लगता था। अब कैलाश-मानसरोवर जाने में सिर्फ सात दिन लगेंगे। बूंदी से आगे तक का 51 किलोमीटर लंबा और तवाघाट से लेकर लखनपुर तक का 23 किलोमीटर का हिस्सा बहुत पहले ही निर्मित हो चुका था लेकिन लखनपुर और बूंदी के बीच का हिस्सा बहुत कठिन था और उस चुनौती को पूरा करने में काफी समय लग गया। इस रोड के चालू होने के बाद भारतीय थल सेना के लिए रसद और युद्ध सामग्री चीन की सीमा तक पहुंचाना आसान हो गया है। लद्दाख के पास अक्साई चीन से सटी सीमा पर अक्सर चीनी सैनिक घुसपैठ करते आए हैं। अगर तुलना की जाए तो लिंक रोड के बनने से लिपुलेख और कालापानी के इलाके में भारत सामरिक तौर पर भारी पड़ सकता है। दो साल पहले चीनी सेना ने पिथौरागढ़ के बाराहोती में घुसपैठ की कोशिश की थी। इस लिंक रोड के बनने के बाद चीनी सेना ऐसी गुस्ताखी नहीं कर पाएगी।
क्यों अहम है कालापानी ?
नेपाल ने कहा कि उसने हमेशा यह साफ किया है कि सुगौली समझौते (1816) के तहत काली नदी के पूर्व का इलाका, लिंपियादुरा, कालापानी और लिपुलेख नेपाल का है। उसका कहना है, 'नेपाल सरकार ने कई बार पहले और हाल में भी कूटनीतिक तरीके से भारत सरकार को उसके नया राजनीतिक नक्शा जारी करने पर बताया था। सुगौली संधि के तहत ही नेपाल कालापानी को अपना इलाका मानता है। पिछले साल जब जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून के तहत इसे दो अलग-अलग भागों में बांट दिया गया तब आधिकारिक तौर पर नया नक्शा जारी किया गया था। उस समय भी नेपाल ने आपत्ति जताई और कालापानी को अपना हिस्सा बताया। कालापानी 372 वर्ग किलोमीटर में फैला इलाका है। इसे भारत-चीन और नेपाल का ट्राई जंक्शन भी कहा जाता है।
सुगौली संधि और कालापानी का पेंच
नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच 1816 में सुगौली संधि हुई थी। सुगौली बिहार के बेतिया यानी पश्चिम चंपारण में नेपाल सीमा के पास एक छोटा सा शहर है। इस संधि में तय हुआ कि काली या महाकाली नदी के पूरब का इलाका नेपाल का होगा। बाद में अंग्रेज सर्वेक्षकों ने काली नदी का उदगम स्थान अलग-अलग बताना शुरू कर दिया। दरअसल महाकाली नदी कई छोटी धाराओं के मिलने से बनी है और इन धाराओं का उदगम अलग-अलग है। नेपाल का कहना है कि कालापानी के पश्चिम में जो उदगम स्थान है वही सही है और इस लिहाज से पूरा इलाका उसका है। दूसरी ओर भारत दस्तावजों के सहारे साबित कर चुका है कि काली नदी का मूल उदगम कालापानी के पूरब में है।

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