प्रियंका-दीपिका नहीं, एक समय में अनुराग कश्यप बिखेरते थे कान्स में फिल्मों का जलवा

 
नई दिल्ली 

अक्सर सितारों के फैशनेबल अवतार के लिए सुर्खियां बटोरने वाला कान्स फिल्म फेस्टिवल अपनी फिल्मों की क्वालिटी को लेकर कम चर्चा बटोरता है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि कान्स में दुनिया का बेहतरीन सिनेमा पहुंचता है और कान्स हर साल Palme d'Or नाम का अवॉर्ड एक फिल्म को देता हैं. ये फिल्में सदाबहार फिल्मों की श्रेणी में होती हैं और वर्ल्ड सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाती रही हैं. आज दीपिका प्रियंका और कंगना अपने कान्स लुक्स के लिए भले चर्चा में हो लेकिन एक समय पर अनुराग कश्यप कान्स में सुर्खियां बटोरा करते थे.
साल 2013 में भारत की तरफ से चार फिल्में कान्स फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनीं थी. इन फिल्मों का नाम था, अग्ली, मानसून शूटआउट, द लंचबॉक्स और बॉम्बे टॉकीज़. इन चारों ही फिल्मों में एक बात कॉमन थी- अनुराग कश्यप. दरअसल कश्यप इन फिल्मों में या तो प्रोड्यूसर के तौर पर मौजूद थे या डायरेक्टर के तौर पर. उस दौर में फ्रांस मीडिया में ये सुगबुगाहट थी कि क्या अनुराग के अलावा भारत में कोई और फिल्ममेकर नहीं है? भारत में बॉलीवुड के अलावा भी कई इंडस्ट्रीज़ हैं, लेकिन कान्स में तूती सिर्फ अनुराग कश्यप की बोल रही थी. एक ऐसा फिल्ममेकर जिसकी पहली फिल्म 'पांच' आजतक रिलीज़ नहीं हो पाई, दूसरी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' घोर विवादों में घिरी रही और रिलीज़ के चार साल बाद सिनेमाघरों का मुंह देख पाई. अपने शुरुआती करियर में उनकी कई फिल्मों को आम मेनस्ट्रीम दर्शक वर्ग नकारता रहा, वो शख़्स आखिर फ्रांस के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल में भारत का सबसे बड़ा चेहरा कैसे बन गया?

 
अनुराग ने साल 1993 में अपना पहला फिल्म फेस्टिवल अटेंड किया था. दिल्ली में. उस समय वे केवल 20 साल के थे. डीयू से जूलॉजी पढ़ रहे थे. हालांकि इस फेस्टिवल ने उनकी ज़िंदगी बदल दी थी. 1948 में आई विट्टोरियो डी सीका की फिल्म बाईसाइकिल थीव्स से वे बेहद प्रभावित हुए थे. इस फिल्म फेस्टिवल में लगभग 50 फिल्में देखने के बाद अनुराग ने फिल्ममेकर बनने का निर्णय लिया था.  

1999 में अनुराग की लिखी और रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्देशित की गई फिल्म सत्या भी एक फिल्म फेस्टिवल में पहुंची थी. इस फेस्टिवल का नाम था IFFI पैनोरामा. साल 2003 में उनकी बैन फिल्म पांच को दिल्ली के ओशियान सिनेफैन फेस्टिवल में दिखाया गया. अनुराग को यही से ही फेस्टिवल की ताकत का अंदाज़ा हुआ था. वे मानते हैं कि अगर उनकी शुरुआती फिल्में रिलीज हो जाती तो वे फिल्म फेस्टिवल के अनूठे कॉन्सेप्ट से शायद महरुम रह जाते. 

अनुराग मानते हैं कि एक फिल्ममेकर के तौर पर फेस्टिवल्स वो जगहें होती हैं जहां आप अपनी फिल्मों का मार्केट तैयार करते हैं. चूंकि अनुराग की फिल्में बैन हो रही थी और उन्हें ये विश्वास हो चला था कि उनकी फिल्मों को लोग देखना नहीं चाहते हैं, यही कारण है कि उन्होंने फेस्टिवल्स को काफी अलग तरीके से देखना शुरु कर दिया था. साल 2004 में उनकी फिल्म ब्लैक फ्राइडे को स्विटज़रलैंड के लोकार्नो फेस्टिवल में सेलेक्ट किया गया था. वहां अनुराग को एहसास हुआ कि उनकी फिल्मों को भी लोग देखना चाहते हैं. वे मानते हैं कि हमारे सिस्टम में ये समस्या है कि यहां पता नहीं है कि अपनी फिल्म को कैसे बेचना है और उसे फिर बेकार फिल्म घोषित कर दिया जाता है.

 
अनुराग मानते हैं कि युवा फिल्मकारों को थोड़ा और जज्बा दिखाना चाहिए. उन्होंने फिल्म कंपेनियन के साथ बातचीत में कहा था – कोर्ट जैसी फिल्म को अगर वेनिस फिल्म फेस्टिवल में नहीं देखा गया होता तो ये बेहतरीन फिल्म कहीं खो जाती. चौथी कूट जैसी फिल्म के डायरेक्टर गुरविंदर दर्शकों को खुश करने के लिए फिल्म नहीं बनाते हैं. उनकी फिल्में फेस्टिवल्स में नहीं चलती तो कहीं ना कहीं उनकी हिम्मत पर फर्क पड़ता. अनूप सिंह की किस्सा को भले ही भारत में ना देखा गया हो लेकिन इसे दुनिया भर में देखा गया. फिल्म फेस्टिवल्स कई फिल्ममेकर्स को हिम्मत देते हैं और उन्हें एहसास दिलाते हैं कि चीज़ें पूरी तरह से खराब नहीं हैं.

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