निजामुद्दीन दरगाह नहीं जाते तबलीगी जमात के लोग, मजारों पर जाना बताते हैं हराम

 
नई दिल्ली 

कोरोना संक्रमण के खतरों से निपटने के लिए देश भर में किए लॉकडाउन के बीच दिल्ली के तबलीगी जमात के मरकज में करीब 2000 लोग इकट्ठा थे, जिसके लिए मौलाना साद सहित 7 लोगों के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज किया है. ऐसे में लोग तबलीगी जमात के मरकज से चंद कदम की दूरी पर स्थित निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को भी निशाना बना रहे हैं जबकि तबलीगी जमात और निजामुद्दीन दरगाह को मानने वाली इस्लाम की दो विपरीत धाराएं हैं.

मुसलमानों में तबलीगी जमात के लोग देवबंदी विचाराधारा के करीब हैं, जिसके वजह से वे मजार और मकबरों पर नहीं जाते हैं. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह सदियों से मुसलमानों के बीच खासी अहमियत रखती है, पर तबलीगी जमात के लोग वहां नहीं जाते हैं. इतना ही नहीं, अजमेर की ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह सहित तमाम औलियाओं की मजारों पर इन्हें जाते नहीं देखा जाता है. मजारों पर होने वाली कव्वाली और सजने वाली महफिलों को तबलीगी इस्लाम के खिलाफ बताते हैं और हराम करार देते हैं.

वहीं, बरेलवी और सूफी मत के लोग महज न केवल मजारों पर जाते हैं बल्कि वहां जियारत करने, चादर चढ़ाने से लेकर मन्नतें तक मांगते हैं. मुसलमानों के अलावा भी हिंदू, सिख सहित कई धर्मों के मानने वाले लोग दरगाह में आते और चढ़ावा भी चढ़ाते हैं. मजारों पर जाने वाले मुसलमान निजामुद्दीन औलिया ही नहीं तमाम मजारों में जाते हैं और उन्हें अल्लाह के करीबी मानते हैं. दरगाहों पर जाने को ये लोग रुहानी तस्कीम (आध्यात्मिक सुकून) मानते हैं.

हालांकि, फिक्ह (इस्लामिक विधि) के मामले तबलीगी जमात और बरेली या सूफीइजम दोनों हनफी मसलक से हैं. सुन्नी इस्लाम में चार बड़े संप्रदाय हैं, इन्हीं में एक इमाम अबू हनीफा थे. ऐसे में अबू हनीफा को मानने वाले हनफी मुस्लिम कहलाते हैं. भारतीय महाद्वीप में 90 फीसदी सुन्नी मुसलमान हनफी मसलक के मानने वाले हैं. इनके नमाज, रोजा, हज जैसे तरीके एक हैं, लेकिन बस मजारों पर जाने और न जाने को लेकर विवाद हैं.
 
बता दें कि निजामुद्दीन औलिया की दरगाह की देखभाल और सारी जिम्मेदारी चिश्ती परिवार के पास है. यहां कई तरह के संगठन बने हुए हैं और वे सब मिलकर दरगाह की देखभाल करते हैं. मजार पर आने वाले शख्स को जियारत कराने से लेकर उसके द्वारा दिए जाने वाले चंदे का रखरखाव यही करते हैं. ऐसे में तबलीगी जमात की वजह से दरगाह को निशाने पर लिया गया तो चिश्ती परिवार ने सख्त ऐतराज जताया.

वहीं, तबलीगी जमात मरकज के सर्वेसर्वा संस्थापक मौलाना इलिहास कांधलवी के परपोते मौलाना साद हैं. तबलीगी जमात के अब तक कुल चार अमीर (प्रमुख) बने हैं, जिनमें तीन मौलाना इलिहास कांधलवी के परिवार के हैं. तबलीगी जमात के मरकज में सिर्फ मुसलमान आते हैं और इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए निकलते हैं. यहां चंदे का चलन नहीं है. जो लोग भी आते हैं सब अपनी जेब से खर्च करते हैं. ये इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए पूरी दुनिया में काम करते हैं.

दरअसल मोहम्मद इलियास का जन्म शामली जिले के कांधला गांव में हुआ था. कांधला गांव में जन्म होने की वजह से ही उनके नाम में कांधलवी लगाया जाता है. उनके पिता मोहम्मद इस्माइल थे और माता का नाम सफिया था. एक स्थानीय मदरसे में उन्होंने एक चौथाई कुरान को मौखिक तौर पर याद किया. वो अपने पिता के मार्गदर्शन में दिल्ली के निजामुद्दीन में कुरान को पूरा याद किया. इसके बाद उन्होंने अरबी और फारसी की शुरुआती किताबों को पढ़ा और बाद में वो मौलाना रशीद अहमद गंगोही के साथ रहने लगे. मौलाना गंगोही देवबंद विचारधारा के सबसे बड़े मौलानाओं में से एक हैं.

देवबंदी विचारधारा दरगाहों, मजारों पर जाने को लेकर साफ तौर पर मना तो नहीं करती है, लेकिन यह जरूर कहती है कि इससे पूजा पद्यति को बढ़ावा मिलता है. इतना ही नहीं, इनका कहना है कि जो मर गया है वो आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. ऐसे में उनसे किसी तरह की मन्नत नहीं मांगनी चाहिए. हालांकि, ये कहते हैं कि मजारों पर जाकर सिर्फ फातिहा पढ़िए और मरने वाले को बख्श कर चले आइए. न तो मजारों को चूमें और न ही किसी तरह की चादर वगैरह चढ़ाएं. यही वजह है कि तबलीगी जमात के मरकज से चंद कदमों से दूर निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जमात के लोग नहीं जाते हैं.
 हालांकि, मुसलमानों का बरेलवी और सूफीइजम मत कहता है कि औलिया मरे नहीं बल्कि दुनिया से परदा हो गए हैं. वो आज भी हमारी बातों को सुनते हैं और अल्लाह तक हमारी सिफारिश करते हैं. हजरत निजामुद्दीन औलिया सहित तमाम मुस्लिम बुजुर्गों के जन्मदिन पर उनके मजारों पर उर्स लगते हैं और कव्वाली होती है. इसमें हर धर्म के लोग शरीक होते हैं. इसे एक रूहानी महफिल करार दिया जाता है.

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