संघ से किन मुद्दों पर भिन्न थी सावरकर की सोच

 
नई दिल्ली   
 
विनायक दामोदर सावरकर का नाम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े उन चंद लोगों में शामिल है जिन्हें लेकर तमाम तरह के मिथक और कहानियां गढ़ी गई हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो आज की तारीख में खुद को सावरकर की विरासत का प्रतिनिधि बताता है, उनके जीतेजी सावरकर से उसके रिश्ते उतने सहज नहीं थे जितना दावा किया जाता है. आज विनायक दामोदर सावरकर की पुण्यतिथि पर हम जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसे कौन-कौन से मुद्दे थे जिनपर संघ और सावरकर का रुख एक दूसरे के विपरीत रहा.

महासभा की युवा इकाई बनने से संघ का इनकार

विनायक दामोदर सावरकर हिंदू महासभा के नेता थे. हिंदू महासभा की स्थापना 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद 1915 में हुई थी. जिसका लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत में हिंदू हितों की रक्षा करना था. हिंदू महासभा की स्थापना के 10 साल बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना महासभा के कुछ नेताओं ने की. इस लिहाज से हिंदू महासभा को संघ का मातृ संगठन भी कहा जा सकता है. महासभा के नेता चाहते थे कि संघ उनकी युवा इकाई के तौर पर काम करे. लेकिन महासभा का यह प्लान पूरा नहीं हो पाया और सावरकर से नेतृत्व नें महासभा की युवा इकाई राम सेना की स्थापना की गई.  

कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक दल बनाना चाहते थे

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर वाल्टर के. एंडरसन और श्रीधर दामले द्वारा लिखी गई किताब 'दि ब्रदरहुड इन सैफ्रन, दि आरएसएस एण्ड दि हिंदू रिवाइवलिज्म' में दावा किया गया है कि सावरकर हिंदू महासभा को कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक दल में बदलना चाहते थे. जबकि आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार पहले से ही तय कर चुके थे कि आरएसएस कांग्रेस के खिलाफ सक्रिय राजनीति में सहभागी न होकर एक सास्कृतिक संगठन के तौर पर काम करेगा. सावरकर और संघ के बीच एक समय मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को संघ छोड़ने की हिदायत दे दी थी. इसका जिक्र 3 मार्च, 1943 को सावरकर द्वारा लिखे एक पत्र के माध्यम से चलता है.

भारत छोड़ो आंदोलन

आजादी के इतिहास के पन्नों में 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन एक महत्वपूर्ण पड़ाव के तौर पर दर्ज है. जब ब्रिटेन द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल हो रहा था और महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की अगुवाई की. इस दौरान पूरे देश ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया लेकिन आरएसएस ने खुद को इस आंदोलन से दूर रखा. लेकिन सावरकर ने एक कदम आगे बढ़कर इस दौरान देश के अन्य हिस्सों का दौरा किया और हिंदू युवाओं को अंग्रेजों की सेना में शामिल होने का आह्वान किया.

द्वी राष्ट्र सिद्धांत

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम की किताब में ये जिक्र मिलता है कि साल 1937 में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर ने कहा था कि आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान. जबकि मुहम्मद अली जिन्नाह के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में पाकिस्तान के तौर पर मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग की थी. इतिहास में इसे द्वी राष्ट्र सिद्धांत के तौर पर जाना जाता है. यही नहीं 15 अगस्त, 1943 को नागपुर में सावरकर ने कहा था, ‘मिस्टर जिन्ना की टू नेशन थ्योरी से मेरा कोई झगड़ा नहीं है. हम, हिंदू, स्वयं में एक राष्ट्र हैं और ये ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं.’

हिंदुत्व को लेकर मतभेद

आज की तारीख में आरएसएस जिस 'हिंदुत्व' का अगुवा होने का दावा करता है इस शब्द की उत्पत्ति सावरकर की कलम से हुई थी. हिंदुत्व विचारधारा के जनक सावरकर ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन 'हिंदुत्व' नामक के ग्रन्थ में किया. शुरू में भले ही सावरकर और आरएसएस हिंदुत्व की इसी अवधारणा को लेकर आगे बढ़े हों, लेकिन बाद में आरएसएस ने अपने रुख में परिवर्तन लाया और अब संघ का मानना है कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है. जबकि सावरकर के हिंदू राष्ट्र की परिभाषा के मुताबिक ईसाई और मुसलमान ज्यादातर हाल तक हिंदू थे और वे अपनी पहली पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं. सावरकर का मानना है कि ये लोग भले ही हमसे साझा पितृभूमि, मूल और संस्कृति का दावा करें, लेकिन इन्हें हिंदू के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती.

गौ-हत्या और सावरकर

बहुत कम लोगों को पता होगा कि हिंदुत्व को परिभाषित करने वाले सावरकर एक नास्तिक थे. गाय को लेकर आज देश में जारी राजनीति में आरएसएस और बीजेपी सबसे आगे हैं. लेकिन गाय को लेकर सावकर की सोच एकदम अलग थी क्योंकि वे गाय को इश्वरीय मानने के बजाय सिर्फ एक पशु मानते थे. सावरकर का कहना था कि अगर आप गाय का अधिकतम उपयोग करना चाहते हैं, तो इसको भगवान बनाना छोड़ना होगा. ईश्वर सबसे ऊपर है. फिर इंसान आता है और इसके नीचे जानवर. गाय भी एक जानवर है, जिसके पास मूर्ख मनुष्य से भी कम बुद्धि है. अगर हम गाय को ईश्वर मानें, तो ये इंसान का अपमान होगा. गाय की सेवा करो, क्योंकि ये उपयोगी है. लेकिन जब लड़ाई के दिनों में या फिर जब ये बोझ बन जाए तो कोई वजह नहीं है कि इसे न मारा जाए.
 

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