लड़ चुके 45000 निर्दलीय, जीत सके महज 222

मुंबई
सितंबर 2014 में आईएएस बादल चटर्जी इलाहाबाद में कमिश्नर थे। एसपी सरकार ने उनका तबादला किया, तो जनता सड़क पर उतर आई। यही बादल चटर्जी जब 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में इलाहाबाद नॉर्थ सीट से निर्दलीय चुनाव लड़े, तो उनके हिस्से मात्र 980 वोट आए। चुनावी सियासत में निर्दलीयों के पराभव का यह किस्सा आम है। संसदीय चुनावों की बात करें, तो पहले चुनाव से लेकर 2014 तक कुल निर्दलीय प्रत्याशियों में आधा फीसद से भी कम के ही हिस्से जीत आई है। जानकारों का कहना है कि मजबूत दलीय लड़ाई और कमजोर संसाधनों के चलते निर्दलीय प्रत्याशी अक्सर वोटर में यह विश्वास ही नहीं पैदा कर पाते कि वह जीत रहे हैं। अब तक कुल 45000 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन जीते महज 222।

बादल चटर्जी बताते हैं कि जब वह अपने चुनाव प्रचार के लिए गए, तो जनता ने हाथों हाथ लिया, लेकिन वोट नहीं दिया। कुछ ने कहा कि आपको किसी पार्टी से लड़ना चाहिए था। अपने कद पर दूसरों को चुनाव जिताने वाले समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस जब निर्दल लड़े, तो उनकी जमानत जब्त हो गई।

दल बढ़ते गए, तो निर्दलीय घटते गए
आईआईएम लखनऊ में बिजनस इकनॉमिक्स के प्रफेसर कौशिक भट्टाचार्य ने संसदीय चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों के हश्र पर कई रिसर्च पेपर प्रकाशित किए हैं। वह एक दिलचस्प ट्रेंड की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि 1977 तक के चुनावों को देखें, तो निर्दल 'सबल' नजर आते हैं। मसलन 1952 में 37 उम्मीदवार निर्दल जीतकर संसद पहुंचे थे। 1957 में यह आंकड़ा बढ़कर 42 हो गया और 19.32% वोट निर्दलीयों के खाते में गए। आखिरी बार 1989 में लोकसभा चुनाव में निर्दलीय 12 सीटें जीतकर दो अंकों में पहुंचे थे। 1991 में तो मात्र एक निर्दल जीता था। प्रो. कौशिक का कहना है कि शुरुआती चुनावों में एक ही पार्टी थी, इसलिए विपक्ष में भी दल नहीं कद अहम हो जाता था। दूसरे, आजादी के बाद के चुनावों में नैतिकता व चेहरे भी अहम हो जाते थे, जिसकी बिसात पर निर्दलीय भी बाजी मार लेते थे। 1977 के बाद पार्टियों के गठन और बढ़ती संख्या ने वोटरों के लिए विकल्प बढ़ा दिया और निर्दलीयों का मैदान सिकोड़ दिया।

खुद के बजाय दूसरों के लिए भी उम्मीदवारी
2004 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीयों की भागीदारी को आधार बनाते हुए किए अपने रिसर्च में प्रो. कौशिक बताते हैं कि बाद के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने की वजहों में भी बड़ा बदलाव हुआ है। बड़े पैमाने पर निर्दलीय उम्मीदवार या तो शौकिया हैं, तात्कालिक लोकप्रियता चाहते हैं या पहचान बनाकर अपने दूसरे कामों के लिए जमीन तैयार करने के लिए उतरते हैं। कई धरती पकड़ उम्मीदवार इसकी नजीर हैं। दलों से नाराज बागी के तौर पर किसी खास उम्मीदवार को हराने या फिर बड़ी सीटों पर किसी मजबूत उम्मीदवार को सहूलियत देने के लिए भी ये काम आते हैं।

आम चुनावों में ढेर हुए दिग्गज
1996 : 10,635 निर्दलीय उम्मीदवारों में 9 ही जीते
1996 : आंध्र की नालगोंडा सीट पर 480 निर्दलीयों ने पर्चा भरा था।
2004 : राम जेठमलानी लखनऊ से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर फेल हुए
2009 : जॉर्ज फर्नांडीस मुजफ्फरपुर से निर्दलीय लड़े और केवल 22,804 वोट पाए, चौथे नंबर पर रहे।
2014 : डॉ. आंबेडकर के बेटे प्रकाश आंबेडकर महाराष्ट्र के अकोला से निर्दलीय लड़े, तीसरे नंबर पर रहे।

निर्दलीयों का हाल
चुनाव     लड़े     जीते     जमानत गई     वोट शेयर
2004     2385     05     2370     4 .25%
2009     3831     09     3806     5 .20%
2014     3234     03     3218     3 .06%

इसलिए चुनाव लड़ते हैं निर्दलीय

राजनीतिक दलों के कोर मुद्दे न उठाने की वजह से

पार्टी में तवज्जो न दिए जाने से बगावत के तौर पर

जल्द लोकप्रियता और प्रचार पाने के लिए

मुख्य धारा के दलों के उम्मीदवारों के 'एजेंट' या डमी के रूप में

उम्मीदवार विशेष को हराने या वोट काटने के लिए

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