देखरेख जीर्णोद्धार के अभाव में अस्तित्व खो रहे हैं प्राचीन कुएं बावड़ी

रायसेन
शहर ही नहीं बल्कि आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे प्राचीन स्थल है, जहां की चर्चा हर एक के जुबां पर रहती है। ठीक उसी तरह कुएं बावड़िया भी चर्चा का विषय है बता दें कि हजारों साल पुरानी बावड़िया आज भी लोगों को पानी उपलब्ध करा रही है पर इनके जीर्णोद्धार पर किसी की नजर नहीं है जहां ग्राम पंचायत सूंड में प्राचीन बावड़ी हजारों साल पुरानी बताई जा रही है वहीं जिला मुख्यालय पर वार्ड 17 मैं स्थित बावड़ी को देखने लोग आते हैं। इसी प्रकार ग्राम पंचायत सांचैत से हमारे प्रतिनिधि सतीश मैथिल बताते हैं कि यहां पर प्राचीन बाबड़ी भी क्षतिग्रस्त हो गई है। इसका मुख्य कारण अतिवृष्टि  रहा है। जिसका बावड़ी की इमारतों पर भारी असर पड़ा। जिसके चलते फूलते फलते पौधे भी नष्ट हो गए, जिसको आज तक भी शासन कोई भी अधिकारी इमारत की क्षति का आकलन करने नहीं पहुंचे।

प्राचीन बावड़ी की उपलब्धि बावड़ी के महंत पहलाद गुरुजी ने बताया ग्यारह सौ साल पुरानी बाबड़ी का निर्माण  करने बाले सन्त महात्मा स्वामी नरहरि गिरी जी महाराज उनकी समाधि बर्तमान में स्तिथ है। दिब्य भब्य समाधि स्तिथ है, जो आज भी दूर से नजर आती है। कोई भी भक्त जो सच्ची श्रद्धा से मनोकामना लेकर यंहा आता है, उसकी मनोकामना पूर्ण होती है। इसका लाभ बहुत से राजा और महाराजाओ ने भी उठाया हैं।

कहा जाता है कि एक राजा थे मानसिंह जिनका कोई बंश नही था, किसी व्यक्ति द्वारा राजा के कानों में सुनाई पड़ी की महात्मा स्वामी नरहरि महाराज बहुत तपसबी है, राजा महन्त जी के पास आया और उसने अपनी समस्या मेंहंत जी को सुनाई ओर राजा के घर बंस की उपलब्धि हुई बालक ने जन्म लिया राजा ने अपना महल  निबास स्थान सब कुछ मैंहत जी को दान करने को कहा पर महंत जी ने मना कर दिया।

ग्यारह सो बर्स पूर्ब जब कोई साधन नही थे  आज सारे बिज्ञान ओर पुरातत्व अति आश्चर्य है कि बिना साधन के इतना पत्थर कैसे आ गया ये सारा पत्थर बावड़ी के  निर्माण के लिए राजा मानसिंह की ओर से स्वामी नरहरी जी महाराज को दिया गया।राजा मानसिंह और स्वामी नरहरी जी महाराज दोनों के बीच आपस में बहुत प्रेम था बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं या तालाबों को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है।

जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अत: जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं। बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावड़ियों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती हैं।

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