चुनावी शोर में नारों का जोर, ‘जय जवान जय किसान’ से ‘इंडिया शाइनिंग’ तक

 
लखनऊ 

हर चुनाव में कुछ नए नारे आते है और छा जाते हैं। ये नारे चुनाव में कितना असर डालते हैं, इस सवाल पर समाजशास्त्री प्रो राजेश जर्मन विचारक मैक्स वेवर की नजीर देते हैं। वेवर ने कहा था 'नेता और उसके वादे प्रॉडक्ट की तरह हैं जिसे जनता के बीच लॉन्च किया जाता है।' ऐसे में नारे और 'वन लाइनर' माहौल बनाने के लिए और जरूरी होते जा रहे हैं। खासकर इस दशक के चुनाव में नेता को 'लॉन्च' किए जाने के साथ ही उसकी इमेज चमकाने के लिए नारे भी साथ में 'लॉन्च' किए जा रहे हैं।  
 
लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र के प्रो. एसके द्विवेदी कहते हैं 'नारों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है। यह अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे मतदाताओं को प्रभावित करता है। इसलिए पहले इसका असर अधिक था। अब पढ़े-लिखे लोग बढ़े रहे हैं। वे मुद्दों को समझते हैं और नारों के बहकावे में कम आते हैं।' हालांकि पुणे यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रफेसर राजेश का कहना है 'मुद्दे कितने भी असली हों लेकिन जब तक उन्हें बेचा न जाए वे असर नहीं करते। नारे यही करते हैं।' 

चुनाव में सबसे अहम परसेप्शन होता है। नारों के जरिए मुद्दों को आसानी से वोटर के जेहन में उतार दिया जाता है। प्रोपगैंडा के जरिए इसे हिट बनाया जाता है। भावानात्मक वोटर वर्ग की भारी तादाद के चलते यह काम और आसान होता है। इससे बहुत बार तार्किक आधार पर जो चेहरा प्रॉब्लम क्रिएटर होता है वह 'सॉल्वर' नजर आने लगता है। चुनावी कैंपेन में जिस तरह से सोशल मीडिया का जोर बढ़ा है उसमें भी हैशटैग के लिए नारे सबसे मुफीद होते हैं। 

जय जवान, जय किसान: 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मनोबल बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का यह नारा, आगे कांग्रेस के चुनावी समर में भी खूब हिट हुआ। 

समाजवादियों ने बांधी गांठ, पिछड़े पांव सौ में साठ: 70 के दशक में सोशलिस्टों का यह नारा चुनावी राजनीति में बड़ा बदलाव लेकर आया। पहली बार जातीय आधार पर वोटरों का बड़ा बंटवारा हुआ और एक नया ओबीसी वोटर वर्ग खड़ा हुआ। यह आवाज मंडल कमीशन और पिछड़ों के आरक्षण के अंजाम में तब्दील हुई। 

गरीबी हटाओ: 1971 में इंदिरा गांधी के चुनावी अभियान को इस नारे ने ऐतिहासिक सफलता दिलाई और 'इंदिरा इज इंडिया' की जमीन तैयार की। 

इंदिरा हटाओ, देश बचाओ : आपातकाल के जुल्म और आक्रोश के बीच विपक्ष ने इंदिरा के 1971 के नारे को 'इंदिरा हटाओ' में बदल दिया। इस नारे से केंद्र से कांग्रेस की सत्ता उखाड़ दी। 

राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है: 1989 में कांग्रेस का विजय रथ रोकने में सफल रहे विपक्ष की अगुवाई कर वीपी सिंह के लिए गढ़ा यह नारा खूब चर्चा में रहा। कांग्रेस ने भी जवाबी नारा गढ़ा 'फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।' 

मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय सिया राम: 1993 के यूपी के विधानसभा चुनाव में राम लहर पर सवार बीजेपी को रोकने के लिए एसपी-बीएसपी ने गठबंधन किया। इसके साथ ही यह नारा भी अस्तित्व में आया। अंतत: बीजेपी का विजय रथ रुक ही गया। 

सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी: पहली बार बीजेपी को केंद्र की सत्ता में काबिज होने के चुनावी अभियान में इस नारे ने भी खूब असर दिखाया। 

इंडिया शाइनिंग बनाम आम आदमी को क्या मिला: चुनाव में कॉरपोरेट और प्रबंधन फर्मों की एंट्री हुई और 2004 में अटल सरकार की दोबारा वापसी के लिए 'इंडिया शाइनिंग' गढ़ा गया लेकिन जनता को कांग्रेस का स्लोगन 'आम आदमी को क्या मिला?' अधिक समझ में आया। 

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