गुलाबो सिताबो ने दो मुहावरों में जिंदगी की वो सच्चाई बयां कर दी जो बड़ी-बड़ी फिल्में ना कर पाईं

 
नई दिल्ली 

ना घर का ना घाट का और लालच बुरी बला है, अब ये दो वो मुहावरे हैं जो जिंदगी में कई बार इस्तेमाल किए जाते हैं, जिनका प्रयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है, लेकिन दोनों का साथ में कभी इस्तेमाल हो, ऐसा मुश्किल ही देखने को मिलता है. लेकिन जो कम ही देखने को मिलता है, या कह लीजिए जिसका साथ में कोई कनेक्शन ही नहीं, अब वो कर दिखाया है डायरेक्ट शूजीत सरकार ने. डायरेक्टर ने अपनी नई फिल्म गुलाबो सिताबो के जरिए दर्शकों को इन दो मुहावरों का सही मतलब बता दिया है.

जी हां, गुलाबो सिताबो है जरूर 2 घंटे की लेकिन उसका सार तो सिर्फ इन दो मुहावरों में छिपा हुआ है. पहले 'ना घर का ना घाट का' वाले मुहावरे की बात कर लेते हैं. अब इस मुहावरे का मतलब सीधे तौर पर ये होता है कि इंसान जो चाहता था उसे वो भी नहीं मिला, जो मिल सकता था वो भी उसके हाथ से फिसल गया. इस फिल्म में भी दो ऐसे ही नमूने हैं, एक तो हैं मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और दूसरे हैं बांके (आयुष्मान खुराना). ये दोनों फातिमा महल में रहते हैं.

मिर्जा जीतेगा या बांके?

फातिमा महल एक 100 साल से ज्यादा पुरानी हवेली है जो मिर्जा की बेगम (फारुख जाफर) के नाम पर है. यहां कहने को कई परिवार साथ रहते हैं, लेकिन मालिक सिर्फ एक है- मिर्जा. बाकी जितने भी लोग हैं सब किराएदार हैं और किराए के नाम पर मिर्जा को 20- 30 रूपये देते हैं. लेकिन सबसे बुरा हाल है बांके का क्योंकि ये वो जनाब हैं जो इस हवेली पर अपना हक भी समझते हैं और किराया भी ठीक से नहीं देते हैं. इसी को देखते हुए मिर्जा, बांके और बाकी किरायदारों को हवेली से बाहर निकालना चाहता है. वो इस लड़ाई में इतना अंधा हो जाता है कि इस हवेली को बेचने का प्लान तक बना लेता है.

लेकिन यहीं पर बांके अपना तिकड़म लगाता है. वो इस हवेली को पुरातात्विक स्थल (archaeological site) घोषित करवाने की कोशिश में लग जाता है. अब फंडा सीधा है,अगर ऐसा होता है तो फातिमा हवेली पर मिर्जा का कोई हक नहीं रह जाएगा और ये संपत्ति सरकार की हो जाएगी.

अब कहानी के इस मोड़ पर देखने को मिलता है दूसरा मुहावरा- लालच बुरी बला है. अभी तक तो सिर्फ मिर्जा और बांके एक दूसरे के खिलाफ साजिश कर रहे थे, लेकिन अब इस लड़ाई में लालच आ गया. एक तरफ मिर्जा सोच रहा है कि हवेली को बेच लाखों कमा लेगा, तो वहीं बांके सोच रहा है कि हवेली को पुरातात्विक स्थल बताकर सरकार से मुआवजा ऐंठा जाए. मतलब लालच दोनों तरफ जोरदार है. पैसे की भूख साफ देखी जा सकती है.
 

किसने बिगाड़ा मिर्जा और बांके का खेल?
लेकिन फिर गुलाबो सिताबो की कहानी में वो खूबसूरत मोड़ आता है जब ये दोनों मुहावरे एक दूसरे से टकराते हैं. जब शूजित सरकार इन दोनों मुहावरों का टांका साथ भिड़ा देते हैं. अब ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि ये फातिमा हवेली ना मिर्जा बेच पाता है और ना ही बांके इसे पुरातात्विक स्थल घोषित करवा पाता है. लेकिन इस रेस में दोनों का पत्ता साफ जरूर हो जाता है. इसका मतलब ये है कि बाजी कोई और ही मार जाता है और मिर्जा और बांके ना घर के रहते ना घाट के क्योंकि लालच बहुत बुरी बला है. अब किसने मारी बाजी, मिर्जा और बांके का ऐसा हश्र क्यों हुआ, यो तो फिल्म देख आप पता लगा ही लेंगे.

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