क्या सीएम चुनने का प्लान बदलेगी बीजेपी

नई दिल्ली
हरियाणा और महाराष्ट्र में उम्मीद से कम प्रदर्शन रहने के बाद अब झारखंड में झटका लगने से बीजेपी को अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करना पड़ सकता है। बीजेपी को ‘मुख्यमंत्री थोपने’ की अपनी उस रणनीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है, जिसके तहत उसने हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में राजनीतिक तौर पर कम प्रभावशाली समुदाय से आने वाले नेताओं को सीएम बनाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता, राज्यों में अपनी नाकामी छिपाने के लिए अनुच्छेद 370 हटाने, राम मंदिर और एनआरसी जैसे मुद्दे उठाने और केंद्रीय नेतृत्व की ओर से राज्य पर मनमर्जी से मुख्यमंत्री थोपने जैसे दांव बीजेपी की नैया पार नहीं करा पा रहे हैं।

मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी ने मराठों के दबदबे वाले राज्य में ब्राह्मण समुदाय के देवेंद्र फडणवीस, जाट बहुल हरियाणा में खत्री पंजाबी मनोहर लाल खट्टर, पाटीदारों के वर्चस्व वाले गुजरात में जैन विजय रूपानी और आदिवासी बहुल झारखंड में ओबीसी रघुबर दास जैसे नेता चुने। इन्हें बड़ा नेता होने की वजह से नहीं बल्कि केंद्रीय नेतृत्व की निकटता की वजह से मुख्यमंत्री बनाया गया। इन राज्यों में दरअसल सबसे करिश्माई शख्सियत मोदी ही रहे, जिनकी बदौलत पार्टी सत्ता में आई थी। केंद्रीय नेतृत्व ने जैसे ही इन मुख्यमंत्रियों के कंधे पर हाथ रखा, इन्होंने अपनी जाति के समर्थन या फिर व्यापक जनाधार वाले नेताओं के पंख कतरने शुरू कर दिए क्योंकि ये उनको अपने पद के लिए खतरा मानते थे।

मुख्यमंत्रियों ने खुद दी गुटबाजी को हवा
ये मुख्यमंत्री अपने विकास कार्यों से मतदाताओं को प्रभावित करने में नाकाम रहे और बीजेपी की आंतरिक गुटबाजी ने भी इन विधानसभा चुनावों में पार्टी को नुकसान हुआ। गुटबाजी को भी ज्यादातर मौकों पर मुख्यमंत्रियों की ओर से ही हवा मिली थी। महाराष्ट्र में फडणवीस के आलोचक विपक्ष से ज्यादा बीजेपी के भीतर से ही थे। हरियाणा में भी बहुत से बीजेपी नेता खट्टर के खिलाफ हैं, लेकिन मुख्यमंत्री की प्रधानमंत्री से निकटता वजह से खुलकर मुखालफत करने से परहेज करते हैं।

मुश्किल से बच पाया था गुजरात का किला
बीजेपी को 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भी झटका लगने वाला था। यहां भी उसने रूपानी को मुख्यमंत्री बनाकर वही फॉर्म्युला अपनाया। हालांकि, मोदी और शाह के गृह राज्य ने उनकी साख बचा ली थी। इस लिस्ट में रघुबर दास सबसे नए नाम हैं। बीजेपी ने आदिवासी बहुल राज्य में एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री चुना था। बीजेपी को पता था कि उसकी झारखंड में जीत की संभावनाएं कमजोर हैं।

अकेले क्रेडिट लेने पर घमासान, बागियों ने भी किया नुकसान
इस संकट से निपटने के लिए लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव हुए। मुख्यमंत्री ने ‘रघुबर सरकार’ नारे के साथ सारा क्रेडिट अकेले लेने का प्रयास किया। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी टिकट बंटवारे में खामियां थीं। सरयू राय जैसे लोगों की बगावत ने बीजेपी की हार में बड़ा योगदान दिया है।

अकेले दम पर किला फतह करने का आत्मविश्वास पड़ा भारी
बीजेपी की चुनाव से पहले गठबंधन करने में खामी भी उजागर हुई है। इसकी एक वजह शायद बीजेपी के मुख्यमंत्रियों का यह अहंकार था कि वे अकेले दम पर किला फतह कर सकते हैं। महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना के टकराव से हर कोई वाकिफ है। झारखंड में AJSU से गठबंधन तोड़ना पार्टी के विपक्ष में बैठने का एक महत्वपूर्ण कारण है। बीजेपी ने सत्ता विरोधी लहर से पार पाने के लिए अनुच्छेद 370 हटाने, अयोध्या में मंदिर बनाने और NRC जैसे बाहरी मुद्दों पर ज्यादा फोकस किया। जनता ने क्षेत्रीय पार्टियों को ज्यादा तवज्जो दी, जो स्थानीय मुद्दों को उठाकर मतदाताओं से बेहतर ढंग से जुड़ी थीं।

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