कैदियों के बच्चे भी पढ़ेंगे, मां-बाप को मिलेगा इलाज

 
नई दिल्ली 

‘पति जेल में बंद है। उसके सिवाय घर में कमाने वाला और कोई नहीं। दिनभर मेहनत करती हूं, तब भी न तो बच्चों का ढंग से पेट भर पा रही हूं और न उन्हें पढ़ा पा रही हूं। हो सके तो मेरे बच्चों की फीस की व्यवस्था करवा दें।’ ये उस चिट्ठी का अंश है जो एक कैदी की पत्नी की ओर से नैशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी (NALSA) को मिली है। अथॉरिटी एक अभियान के तहत ऐसे कैदियों का पता लगा रही है, जिनके सलाखों के पीछे रहने से उनके परिवार वाले भारी संकट में आ गए हैं। 

इस अभियान का मकसद कैदियों के परेशान परिजनों तक कानूनी और सामाजिक स्तर पर मदद पहुंचाना है। अथॉरिटी का दावा है कि अब तक देश के 50,000 से ज्यादा कैदियों से उसे मदद के लिए आवेदन मिला है, जिनमें से 2774 आवेदन राष्ट्रीय राजधानी की जेलों में बंद कैदियों के हैं। 

साल 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, देशभर की जेलों में करीब चार लाख कैदी हैं। उनमें से 1.28 लाख कैदियों से हुई अब तक की बातचीत में 50,000 ने अपने परिवार वालों की मदद के लिए अथॉरिटी से गुहार लगाई है। इनमें माइनर बच्चों की देखभाल, पढ़ाई, बूढ़े मां-बाप के इलाज आदि जैसी कई तरह की मांगें शामिल हैं। अथॉरिटी के अडिशनल डायरेक्टर नवीन गुप्ता ने अभियान की सफलता का दावा करते हुए कहा, ‘अभी कैदियों के साथ हमारी बातचीत जारी है। उनकी मांगों के हिसाब से उनके परिवारवालों से संपर्क किया जा रहा है। उनके बच्चों के दाखिले, कानूनी विवादों और दो वक्त की रोटी जुटाने जैसी गंभीर समस्याओं को तुरंत दूर करने की कोशिश जारी है। फिलहाल हमारा मकसद एक लाख से ज्यादा कैदियों तक इस अभियान का लाभ पहुंचाना है।’ 

अथॉरिटी के मुताबिक, दिल्ली की जेलों से 2774 कैदियों ने आवेदन दिया है। अभियान के तहत जो टारगेट तय किया गया है, उसके दायरे में अभी 5176 कैदी आ रहे थे। इनमें से 2015 कैदी ऐसे हैं जिनका अपराध अदालत में साबित हो चुका है और 3161 कैदी विचाराधीन हैं। मदद के लिए आवेदन देने वालों में से 1402 कैदियों को दोषी ठहराया जा चुका है और 1364 विचाराधीन हैं। 

परिवारवालों की मदद 
अपराधियों के प्रति हमदर्दी क्यों? इस सवाल का जवाब देते हुए अथॉरिटी के अधिकारी ने बताया, ‘हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सिर्फ दो लोगों पर फोकस है-अपराधी और पीड़ित। इससे प्रभावित होने वाला एक और वर्ग है, जिसका जिक्र इसमें नहीं। समाज भी उनकी अनदेखी करता है। वे हैं मुजरिम और मुलजिम के निर्दोष परिवारवाले। ऐसा कई बार देखा गया है, कैदी अगर घर में इकलौता कमाने वाला हो तो उसके परिवार के सामने दो वक्त की रोटी तक का गंभीर संकट पैदा हो जाता है। सामाजिक, कानूनी और मनोवैज्ञानिक मुद्दे अलग से सामने आते हैं। इससे भी परिवार वालों को इंसाफ पाने में दिक्कत होती है।’ अधिकारी का कहना है कि कैदियों को इस तरह की समस्याओं से निजात दिलाने के लिए ही अथॉरिटी ने अभियान शुरू किया है। 

सुधार में न हो रुकावट 
जेल में बंद रहने के दौरान एक कैदी का बाहर से संपर्क टूट जाता है। उन्हें लगने लगता है कि उनके और उनके परिवार वालों के हितों को देखने वाला कोई नहीं, वह कल्याणकारी योजनाओं का फायदा भी नहीं उठा पाते हैं। इस भावना से ग्रसित होने पर न्यायिक प्रक्रिया और जनसाधारण के खिलाफ नफरत का भाव पैदा हो जाता है। इस वजह से जेल द्वारा कैदियों में सुधार के लिए जो भी कदम उठाए जाते हैं, उनसे पूरा मकसद हासिल नहीं होता। ये सारी चीजें कैदियों के दिमाग पर बुरा असर डालती हैं और उनमें सुधार की राह में रोड़ा बनती हैं। 

छह महीने और उससे ज्यादा की सजा पाने वाले और लगातार एक साल या उससे ज्यादा समय से जेल में बंद कैदी ज्यादा स्ट्रेस में रहते हैं। इस अभियान के तहत उन्हें टारगेट बनाया गया है। 
 

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