कुंभ मेले की तरह “गेर” की रंगीन रिवायत पर यूनेस्को की छाप लगवाने के लिए शुरू हुई कवायद

इंदौर
फागुनी मस्ती के माहौल में यहां रंगपंचमी पर हर साल निकाली जाने वाली "गेर" (होली का पारंपरिक जुलूस) के पारम्परिक आयोजन को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के तौर पर यूनेस्को की सूची में शामिल कराने और वैश्विक पहचान दिलाने के लिए बीड़ा उठाया गया है. जिलाधिकारी लोकेश कुमार जाटव ने रविवार को "पीटीआई-भाषा" को बताया, "हम स्थानीय नागरिकों की मदद से गेर के ऐतिहासिक सन्दर्भ जुटा रहे हैं. इनके आधार पर विशेषज्ञों की मदद से विस्तृत प्रस्ताव तैयार कराया जाएगा जिसे मान्यता के लिए यूनेस्को को भेजा जाएगा."

इसके लिए  प्रशासन 1930 से अब तक 90 साल का डाटा एकत्रित करने की मुहिम में जुटा हुआ है। कलेक्टर लोकेश जाटव की पहल पर एक डिजिटल पोर्टल लॉन्च किया गया है। जिसके माध्यम से संस्थाओं और नागरिकों से उनके पास उपलब्ध जानकारी, दस्तावेज, अनुभव मांगे जा रहे हैं।  दरअसल, इस प्रस्ताव की प्रक्रिया काफी विस्तृत है एवं इसका प्रपत्र भी बहुत बड़ा है और गेर का प्रस्ताव इन्टेंजेबल कल्चरल हेरिटेज श्रेणी के अंतर्गत भेजा जाना है। इसलिए आवश्यक है कि प्रशासन तथा गेर संचालक ठोस एवं आधिकारिक जानकारी उपलब्ध कराएं। यही वजह है कि यूनेस्को में इस प्रस्ताव को ठोस बनाने के लिए एक डिजिटल पोर्टल http://indoremp.in तैयार किया गया है।

जाटव ने कहा, गेर को सांस्कृतिक धरोहर के तौर यूनेस्को की सूची में शामिल कराने के लिए 10 विशेषज्ञों का दल डाक्यूमेंट तैयार करेगा, जिसमें 5 प्रोफेसर्स तथा 5 पीएचडी होल्डर्स शामिल हैं। 1930 से 1947 तक का रिकॉर्ड खंगाल लिया है और प्रशासन के  पास मौजूद 1947 से अब तक का डाटा एकत्रित किया जा रहा है। इसके अलावा संस्थाएं और आम लोगों के पास मौजूद जानकारियां भी डिजिटल पोर्टल के माध्यम से एकत्रित की जा रही है।  

 "हम चाहते हैं कि मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में इंदौर की गेर को भी यूनेस्को की सूची में उसी तरह शामिल किया जाए, जिस तरह कुंभ मेले और देश के अन्य रिवायती कार्यक्रमों को इस प्रतिष्ठित फेहरिस्त में जोड़ा गया है. अगर गेर इस सूची में जुड़ती है, तो इंदौर आने वाले विदेशी पर्यटकों की तादाद में भी इजाफा होगा." जिलाधिकारी ने कहा, "गेर वह ऐतिहासिक आयोजन है जिसमें अलग-अलग समुदायों के हजारों लोग एक रंग में रंगे नजर आते हैं. यह केवल मौज-मस्ती का नहीं, बल्कि मानव जाति के साझेपन और सामूहिकता की अनूठी संस्कृति का पर्व है. गुजरे वर्षों के दौरान गेर में युवतियों की भागीदारी भी उत्साहजनक तौर पर बढ़ी है."

जाटव ने बताया, "अगले साल हम रंगपंचमी पर कोशिश करेंगे कि नयी पीढ़ी के सामने गेर के होलकर-कालीन इतिहास को जीवंत किया जाए. इसके लिए गेर में वही माहौल तैयार किया जाएगा जो तत्कालीन होलकर शासनकाल में होता था."  जानकार बताते हैं कि मध्यप्रदेश के इस उत्सवधर्मी शहर में गेर की परंपरा रियासत काल में शुरू हुई, जब होलकर राजवंश के लोग रंगपंचमी पर आम जनता के साथ होली खेलने के लिए सड़कों पर निकलते थे. तब गेर में बैलगाड़ियों का बड़ा काफिला होता था, जिन पर टेसू के फूलों और अन्य हर्बल वस्तुओं से तैयार रंगों की कड़ाही रखी होती थी. यह रंग गेर में शामिल होने वाले लोगों पर बड़ी-बड़ी पिचकारियों से बरसाया जाता था.

जानकारों के मुताबिक इस परंपरा का एक मकसद समाज के हर तबके के लोगों को रंगों के त्योहार की सामूहिक मस्ती में डूबने का मौका मुहैया कराना भी था. राजे-रजवाड़ों का शासन खत्म होने के बावजूद इंदौर के लोगों ने इस रंगीन रिवायत को अपने सीने से लगा रखा है. गेर को "फाग यात्रा" के रूप में भी जाना जाता है जिसमें हजारों हुरियारे बगैर किसी औपचारिक बुलावे के उमड़कर फागुनी मस्ती में डूबते हैं. रंगपंचमी पर सूरज के सिर पर आते ही रंगारंग जुलूस शहर के अलग-अलग हिस्सों से गुजरते हुए ऐतिहासिक राजबाड़ा (इंदौर के पूर्व होलकर शासकों का महल) के सामने पहुंचते हैं, जहां रंग-गुलाल की चौतरफा बौछारों के बीच हजारों हुरियारों का आनंद में डूबा समूह कमाल का मंजर पेश करता है.

बैंड-बाजों की धुन पर नाचते हुरियारों पर बड़े-बड़े टैंकरों से रंगीन पानी बरसाया जाता है. यह पानी टैंकरों में लगी ताकतवर मोटरों से बड़ी दूर तक फुहारों के रूप में बरसता है और लोगों के तन-मन को तर-बतर कर देता है. खास बात यह है कि गेर में शामिल होने वाले ज्यादातर व्यक्ति एक-दूसरे को रंग नहीं लगाते. फिर भी रंगों की चौतरफा बारिश कुछ यूं होती है कि हजारों हुरियारे एक रंग में रंग जाते हैं और अपने-पराए का भेद मिटता-सा लगता है.

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