अफगानिस्तान में डोनाल्ड ट्रंप की जल्दबाजी कहीं बढ़ा न दे भारत की टेंशन?
नई दिल्ली
दुनिया के सबसे खतरनाक युद्धक्षेत्र अफगानिस्तान में पिछले 18 साल से गुरिल्ला जंग लड़ रहे अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच कतर में जारी नौवें दौर की बातचीत पर पूरी दुनिया की नजरें हैं. खास बात ये है कि इस बातचीत का हिस्सा न तो अफगानिस्तान की सरकार है और न ही वहां शांति और विकास के लिए भारी निवेश कर कई अभियान चलाने वाला भारत. इसका कारण है अमेरिका के साथ वार्ता में तालिबान का शामिल होना और पाकिस्तान और चीन की इस बातचीत में अति सक्रियता. लेकिन अफगान के लोगों का हित और देश में शांति चाहने वाले लोगों के लिए यही स्थिति आने वाले खतरे का संकेत भी दे रही है.
वार्ता की जल्दबाजी में ट्रंप!
अफगान वार्ता में शांति की जटिल शर्तों से ज्यादा दुनिया इस बात को लेकर उत्सुक है कि अमेरिका जिस तालिबान को आतंकी घोषित कर 2001 के 9/11 हमलों के बाद से जंग लड़ रहा है उसी तालिबान से उसकी बातचीत किस हद तक सफल हो पाएगी. ट्रंप अफगानिस्तान से जल्द अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाकर अमेरिका के लोगों से किया अपना चुनावी वादा निभाना चाहते हैं लेकिन अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में फिर अराजकता न हो इसके लिए तालिबान से बातचीत कर रास्ता ढूंढने की कोशिशें हो रही हैं. इसके लिए 8 दौर की बातचीत हो चुकी है और कतर में नौवें दौर की बातचीत जारी है.
जानिए कौन-कौन हैं वार्ताकार
अमेरिका की ओर से बातचीत कर रहे हैं अफगान मूल के अमेरिकी राजनयिक जलमी खलीलजाद तो तालिबान की ओर से 14 सदस्यीय टीम इस वार्ता में शामिल है. तालिबान के वार्ताकारों का नेता है मुल्ला अब्दुल गनी बरादर. बरादर ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर का करीबी रहा है और तालिबान का संस्थापक और नंबर दो स्थान पर माना जाता है. तालिबान की इस टीम में हक्कानी गुट के नेता का भाई अनस हक्कानी भी है. वार्ताकारों की टीम में क्यूबा की कुख्यात ग्वांतानामो बे जेल में बंद रहे 5 पूर्व तालिबान लड़ाके भी शामिल हैं. जिन्हें अमेरिकी सार्जेन्ट की रिहाई के बदले 2014 में तालिबान ने अमेरिका से छुड़ाया था.
तालिबान के पूर्व लड़ाकों को वार्ता की टेबल पर लाकर अमेरिका शांति का रास्ता ढूंढने और 18 साल से जारी अफगान विवाद से जल्दी से जल्दी पीछा छुड़ाने की कोशिश में है. रूस और चीन इस वार्ता को सफल बनाने के लिए अलग से कोशिशें कर रहे हैं. अमेरिका इस वार्ता को सफल बनाने के लिए पाकिस्तान से भी काफी उम्मीदें लगाए हुए है क्योंकि वो जानता है कि तालिबान को बनाने, पालने और बचाने में पाकिस्तान की सीधी भूमिका है.
कौन है तालिबान का मुख्य वार्ताकार मुल्ला बरादर?
तालिबान का प्रमुख वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तालिबान के संस्थापकों में से एक है और उसका संगठन के लोगों पर अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है. वह अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के पहले ओसामा बिन लादेन का निकट सहयोगी था. 1994 में तालिबान की स्थापना में उसने मुल्ला उमर के साथ काम किया था. बरादर को तालिबान के मुखिया मुल्ला उमर के बाद दूसरे नंबर पर माना जाता था.
2001 में तालिबान सरकार के गिरने तक वह अफगानिस्तान में कई पदों पर रहा था. मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को आईएसआई और सीआईए के एक सीक्रेट ऑपरेशन के तहत 2010 में पाकिस्तान के कराची शहर से गिरफ्तार किया गया था. 2018 तक वह जेल में ही रहा. लेकिन वार्ता के लिए अमेरिका ने उसे रिहा करवाया. तबसे वह कतर में तालिबान के राजनयिक दफ्तर को चलाता है.
क्या हैं दोनों पक्षों की मांगें?
इस वार्ता में तालिबान की मुख्य मांग है कि अफगानिस्तान से विदेशी सुरक्षा बल बाहर चले जाएं. तालिबान से उसकी इस मांग के बदले अमेरिका यह आश्वासन चाहता है कि वह अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादियों के अड्डे के रूप में इस्तेमाल नहीं होने देगा. खासकर अलकायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों को वहां बढ़ावा नहीं देगा. इसके अलावा दोनों ओर से कैदियों की अदला-बदली की जाएगी और कुछ तालिबान नेताओं पर लगाया गया ट्रैवल बैन भी हटाया जा सकता है.
हालांकि, इसमें पेच अफगान सरकार और पाकिस्तान के बीच जारी मतभेद को लेकर भी है. दरअसल अफगानिस्तान पाकिस्तान पर तालिबानी और हक्कानी नेटवर्क के आतंकवादियों को अपने यहां सुरक्षित पनाह देने का आरोप लगाता रहा है.
अमेरिका के लिए भी स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी
अभी अफगानिस्तान में नाटो देशों के 20 हजार से अधिक सैनिक तैनात हैं. जिनमें से अधिकांश अमेरिकी सैनिक हैं. जो आतंकवाद रोधी ऑपरेशन के अलावा अफगान सैनिकों की ट्रेनिंग, तकनीकी सहायता और सामरिक तैयारियों में जुटे हैं. दूसरी ओर राजधानी काबुल को छोड़ दें तो अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से में आज तालिबान के गुटों का अच्छा खासा नियंत्रण है. अमेरिका के लिए दो बड़ी चुनौतियां सामने हैं.
एक तरफ जहां अमेरिकी सैनिकों की वापसी करानी है तो सितंबर में होने वाले अफगान राष्ट्रपति का चुनाव भी शांतिपूर्वक संपन्न कराना है. विदेशी सैनिकों के हटने के बाद तालिबान के विभिन्न गुट फिर गुरिल्ला युद्ध में जुट न जाएं इसका खतरा अलग से है.
क्या हासिल हुआ अमेरिका को अफगान वॉर से
2001 में 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अफगान में तालिबान और अलकायदा के खिलाफ जंग छेड़ी थी. तब से अमेरिका वहां एक खरब डॉलर खर्च कर चुका है. अमेरिका अब अफगान वॉर में अपने सैनिकों के जानमाल का और नुकसान नहीं चाहता है. पिछले हफ्ते ही एक हमले में दो अमेरिकी सैनिकों की मौत हो गई.