2011 का जलवा नहीं दोहरा पाए अन्ना, अनशन में सिर्फ गांव और आस-पास के लोग रहे साथ

पुणे 
देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने और जन लोकपाल विधेयक के लिए वर्ष 2011 में एक बुजुर्ग ने आंदोलन की शुरुआत की। देखते ही देखते पूरा देश उस बुजुर्ग के साथ जुड़ गया। लोगों के बीच यह बुजुर्ग अन्ना हजारे नए गांधी के रूप में उभरे और चंद दिनों के अंदर भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी मुहिम का चेहरा बन गए। युवा, बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग, हर कोई अन्ना के साथ खड़ा था। जिस गांधी मैदान में अन्ना भूख हड़ताल पर बैठे, पूरा मैदान लोगों से पट गया। उन्हीं मांगों को लेकर अन्ना एक बार फिर आमरण अनशन पर बैठे, लेकिन इस बार न तो वह भीड़ नहीं दिखी न ही 2011 जैसा उत्साह दिखा।  

लोकपाल की नियुक्ति, राज्यों में लोकायुक्त कानून में बदलाव और किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य देने की मांग को लेकर अन्ना अपने गांव रालेगण सिद्धी में पिछले सात दिन से आमरण अनशन पर बैठे थे। उनकी हालत बिगड़ रही थी, जिससे सरकार पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा था। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के मनाने पर अन्ना मान गए और उन्होंने मंगलवार को अपना आमरण अनशन खत्म कर दिया। 

इस बार अन्ना हजारे को वह समर्थन नहीं मिला जैसा कि वर्ष 2011 में मिला था। अन्ना के आमरण अनशन में उनके गांव और आसपास के लोग ही साथ दिखे। जबकि वर्ष 2011 से वर्ष 2014 तक आम जनता के साथ-साथ मुख्य विपक्ष बीजेपी भी अन्ना के साथ खड़ी दिखी थी। इस बार विपक्षी पार्टियां अन्ना हजारे से दूर दिखीं। यही नहीं उनके समर्थन में भी विपक्ष की तरफ से कुछ खास आवाज नहीं उठा। हां, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने जरूर महाराष्ट्र सरकार को अन्ना हजारे के जीवन के साथ 'ना खेलने' की चेतावनी दी थी। जबकि वर्ष 2011 में अन्ना के सबसे करीबियों में से एक रहे दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने एक शब्द भी इस उपवास के बारे में नहीं बोला।

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