सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से फिर चर्चा में यूनिफॉर्म सिविल कोड: जानें यह है क्या, गोवा की मिसाल क्यों

 
नई दिल्ली

राजनीतिक रूप से संवेदनशील यूनिफॉर्म सिविल कोड सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के बाद एक बार फिर चर्चा में आ गया है। टॉप कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि कई बार इस बारे में कहा गया लेकिन अभी तक इसको लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए गए। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने गोवा का उदाहरण भी दिया। यह मसला ऐसे समय में उठा है जब केंद्र की मोदी सरकार ने हाल ही में तीन तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसला ले चुकी है। बीजेपी पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत करती आई है। ऐसे में यह मसला आगे बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आइए समझते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में क्या कुछ कहा, इसमें गोवा का उदाहरण कितना अहम है और यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर क्या है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
गोवा के एक संपत्ति विवाद केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक आचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का जिक्र किया। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 44 पर गंभीर न होने को सरकारों पर असफलता बताई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू लॉ 1956 में बनाया गया लेकिन 63 साल बीत जाने के बाद भी पूरे देश में समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के प्रयास नहीं किए गए।

शीर्ष कोर्ट ने कहा, 'यह गौर करने वाली बात है कि अनुच्छेद 44 के भाग-4 में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात की गई है और संविधान निर्माताओं ने उम्मीद जताई थी कि स्टेट पूरे भारत में नागरिकों के लिए इसे लागू करने का प्रयास करेगा पर आज तक इस संबंध कोई ऐक्शन नहीं लिया गया।'

कोर्ट ने आगे कहा, 'वैसे तो हिंदू लॉ 1956 में लागू हो गया था लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के कोई प्रयास नहीं हुए जबकि शाह बानो और सरला मुदगल के मामलों में इस बारे में कहा गया था।'

गोवा का हुआ जिक्र
जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ शुक्रवार को गोवा के एक संपत्ति विवाद के मामले की सुनवाई कर रही थी। बेंच का फैसला लिखते हुए जस्टिस गुप्ता ने कहा, 'भारतीय राज्य गोवा का एक शानदार उदाहरण है, जिसने धर्म की परवाह किए बिना सभी के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू किया है… गोवा में जिन मुस्लिम पुरुषों की शादियां पंजीकृत हैं, वे बहुविवाह नहीं कर सकते हैं। इस्लाम को मानने वालों के लिए मौखिक तलाक (तीन तलाक) का भी कोई प्रावधान नहीं है।'

35 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था
शाह बानो के मामले में SC ने कहा था, 'विवादित विचारधाराओं से अलग एक कॉमन सिविल कोड होने से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा।' सरला मुदगल केस में कोर्ट ने कहा था, 'जब 80 फीसदी लोग को पर्सनल लॉ के दायरे में लाया गया है कि तो सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड न बनाने का कोई औचित्य नहीं है।'

अब आगे क्या
तीन तलाक, अनुच्छेद 370 पर हाल ही में बड़े फैसले लेने वाली मोदी सरकार पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को अपने अजेंडे में रखी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। अब बीजेपी का इस पर फोकस बढ़ सकता है। पहले भी सत्तारूढ़ पार्टी सिंगल सिविल कोड की वकालत करती रही है और विरोधियों पर 'वोट बैंक पॉलिटिक्स' का आरोप लगाकर उसे घेरती रही है। आपको बता दें कि पहले कार्यकाल से ही केंद्र की बीजेपी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की कोशिश कर चुकी है। हालांकि, बाकी तीन तलाक और 370 की तरह यूनिफॉर्म सिविल कोड को भी काफी विरोध और विवाद का सामना करना पड़ा था लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।

समझिए, यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है
यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता का मतलब है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक (सिविल) कानून। ऐसे कानून दुनिया के अधिकतर विकसित देशों में लागू हैं। हालांकि भारत में भारत में अलग-अलग धर्मों के रीति-रिवाज और परंपरा के आधार पर बने कई पर्सनल लॉ हैं। ये पर्सनल लॉ शादी, तलाक, विरासत और गुजारा भत्ता जैसे मामलों में लागू होते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 44 के मुताबिक सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कराने का प्रयास करेगी लेकिन इसे लागू करना उसके लिए बाध्यकारी नहीं है। आजादी के बाद न्यायपालिका या विधायिका के जरिए कई बदलाव आए, जैसे हिंदू महिलाओं को हाल में बहुत से अधिकार अलग-अलग कानूनों के जरिए मिले, जिनमें कुछ इस्लाम और ईसाइयत में पहले से मौजूद थे।

अलग-अलग पर्सनल लॉ के बारे में जानिए
मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रक्रिया के तहत 3 बार तलाक, तलाक, तलाक कहने से तलाक दिया जा सकता है। नियम के तहत निकाह के वक्त मेहर की रकम तय की जाती है। तलाक के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है लेकिन महिला को 4 महीने 10 दिन तक यानी इद्दत पीरियड तक इंतजार करना होता है।

हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत हिंदू कपल शादी के 12 महीने बाद तलाक की अर्जी आपसी सहमति से डाल सकते हैं। अगर पति को असाध्य रोग जैसे एड्स आदि हो या वह संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के तुरंत बाद तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है। क्रिश्चियन कपल शादी के 2 साल बाद तलाक की अर्जी दाखिल कर सकते हैं, उससे पहले नहीं। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *