साझा ताकत के बाद भी क्यों बड़े कैंपेन से दूर रहे माया-अखिलेश?

लखनऊ
सियासी पंडितों ने भले ही एसपी और बीएसपी के गठजोड़ को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं जताई हों, लेकिन दोनों दलों के नेताओं ने करीब डेढ़ महीने के लंबे कैंपेन को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया है। दोनों दलों के नेताओं के बीच कहीं कोई विवाद या पसोपेश की स्थिति देखने को नहीं मिली। यही नहीं कार्यकर्ताओं के बीच भी कमोबेश सामंजस्य नजर आया है। हालांकि दोनों दलों ने कैंपेन को बहुत हाई प्रोफाइल तरीके से नहीं चलाया और विज्ञापन की बजाय रैलियों और लोगों से संपर्क की रणनीति पर भरोसा किया।

बीते चुनावों की तरह समाजवादी पार्टी ने 'मन से हैं मुलायम' और 'उम्मीद की साइकिल' जैसे स्लोगन के साथ सोशल मीडिया पर भी कोई कैंपेन नहीं छेड़ा। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव की बात करें तो समाजवादी पार्टी ने आक्रामक कैंपेन किया था और बड़े विज्ञापन भी जारी किए थे।

इस चुनाव में अखिलेश यादव भी अपनी सीनियर साथी मायावती के पदचिह्नों पर चलते दिखे और सोशल मीडिया पर कैंपेन से दूरी रखी। मायावती की पार्टी बीएसपी ने कभी सोशल मीडिया पर ऐड जारी नहीं किया। बीएसपी पीपल-टु-पीपल कनेक्ट और रैलियों के जरिए ही लोगों तक बात पहुंचाने की रणनीति पर चलती रही है।

यदि महागठबंधन के नेताओं की 20 साझा रैलियों को छोड़ दें तो बीएसपी, एसपी और आऱएलडी का प्रचार लो-प्रोफाइल रहा। तीनों में से किसी भी दल ने बड़े होर्डिंग्स और कट-आउट्स पर यकीन नहीं किया। इस बारे में पूछे जाने पर अखिलेश ने कहा, 'हमने अपनी रणनीति के तहत सोशल मीडिया कैंपेन से दूरी बनाई।'

समाजवादी पार्टी ने टेलिविजन और केबल नेटवर्क्स के लिए भी कोई कैंपेन नहीं जारी किया। एसपी प्रवक्ता उदयवीर सिंह ने कहा, 'हमने साधारण सी रणनीति अपनाई। सबसे पहले तो हमने बीजेपी सरकार की असफलता की बात की। इसके बाद हमने एसपी और बीएसपी की सरकारों के दौरान चलाई गई स्कीमों के बारे में लोगों को बताया।' बीएसपी के एक सीनियर लीडर ने कहा कि भले ही समाजवादी पार्टी के साथ आने से हमारे पास संसाधन बढ़े हैं, लेकिन फिर भी यह बीजेपी के मुकाबले का नहीं था। ऐसे में हमने साझा रैलियों के विकल्प पर काम किया।

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