फोग्सी की पीसीपीएनडीटी एक्ट के नियमों को हल्का करने दायर याचिका ख़ारिज 

ग्वालियर
पीसीपीएनडीटी एक्ट के नियमों को हल्का करने के लिए दायर की गई याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है। फेडरेशन आॅफ आॅब्सटेट्रिक्स एंड गाइनोकोलॉजिकल सोसाइटीज आॅफ इंडिया (फोग्सी) ने यह याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अगर उक्त अधिनियम व उसके प्रावधानों या नियमों को हलका किया गया तो ये ना केवल कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए अधिनियम के उद्देश्य को पराजित करेंगे बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत बालिकाओं के जीवन के अधिकार को सिर्फ औपचारिकता के लिए लागू करेंगे। 

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए फॉर्म 'एफ' की पूरी सामग्री को अनिवार्य बताया। कोर्ट का स्पस्ट मानना है कि गर्भावस्था के दौरान अल्ट्रासोनोग्राफी जांच से पहले फार्म एफ का न भरा जाना एक अपराध है। गौरतलब है कि गायनिक चिकित्सकों की संस्था फोग्सी ने सुप्रीम कोर्ट में कागजी कार्रवाई, रिकॉर्ड रखने, लिपिकीय त्रुटियों में विसंगतियों के लिए अधिनियम के प्रावधानों को कम करने की मांग की थी। 

असल में पीसीपीएनडीटी एक्ट के नियमों को लेकर स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञों की कई परेशानिया हैं। फोग्सी के मुताबिक लिंग निर्धारण बड़ा अपराध है। इस पर सख्ती रहना चाहिए, लेकिन इसके नियमों के तहत अगर फार्म एफ के भरे जाने में कोई लिपिकीय गलती होती है तो इसे भी लिंग निर्धारण के समान अपराध माना जाता है। यह अधिनियम आपराधिक अपराधों और अधूरे कागजातों में विसंगतियों के बीच अंतर नहीं करता है। यही कारण है कि क्लेरिकल काम में अनजाने में होने वाली गलती के लिए भी देश भर में प्रसूति रोग विशेषज्ञों को दोषी बताया जाता है।

डायग्नोस्टिक टेस्ट प्रक्रिया क्यों की गई?  यह पता लगाने के लिए फॉर्म 'एफ' के अलावा कोई अन्य पैरमीटर नहीं है। ऐसे में इस तरह की एक भी महत्वपूर्ण जानकारी को अस्पष्ट  या फॉर्म से गायब रखा जाता है तो यह अधिनियम के मुख्य उद्देश्य और सुरक्षा उपायों को खत्म कर देगा। इससे नियमों के उल्लंघन की जाँच करना असंभव हो जाएगा।  इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि फॉर्म 'एफ' भरना उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जो इस तरह के परीक्षण का कार्य करते है। 

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