गुलाबो सिताबो रिव्यू: लखनऊ के टुंडे कबाबों जैसे स्वाद वाली दो शेख चिल्लियों की कहानी

 
मुंबई 

फिल्म:गुलाबो सिताबो
कलाकार:अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, विजय राज, फारुख जफर
निर्देशक:शूजित सिरकार
OTT प्लेटफार्म पर पहली बार प्रीमियर हुआ अमिताभ बच्च्चन और आयुष्मान खुराना की बहुचर्चित फिल्म गुलाबो सिताबो को देखकर बिल्कुल लखनऊ के टुंडे कबाबों की याद आ गई. टेढ़े-मेढ़े कबाब के स्वाद जैसी है ये फिल्म. लखनऊ के दो फुकरे मिर्जा और बांके की कहानी को निर्देशक सुजीत सरकार ने एक बेहद अनोखे अंदाज में पेश किया है. फिल्म एक हल्की-फुल्की कॉमेडी है, बिल्कुल प्रेमचंद के उपन्यासों जैसी. एक अलग तरह का सिनेमा है जो किसी को भाएगा और शायद किसी को बिल्कुल पसंद नहीं आएगा .

बिना सिनेमा घरों की रिलीज के ये फिल्म फिलहाल केवल वे लोग ही देख पाएंगे जो इंटरनेट पर फिल्में देखना पसंद करते है. लेकिन कुल मिलाकर फिल्म एक मजेदार अनुभव है. तो क्या है गुलाबो सिताबो में खास? आइए बताएं-

कहानी

विक्की डोनर की तरह जूही चतुर्वेदी की कलम से लिखी 'गुलाबो सिताबो' की कहानी चौकाने वाली नहीं है, लेकिन पीकू की तरह सपाट है. यूं कहे तो दो शेख चिल्लियों की कहानी है. गुलाबो सिताबो दरअसल उन दो कठपुतलियों का नाम है जो सूत्रधार की तरह पात्रों की फितरत को अपने तमाशे में बताती हैं.

लखनऊ की एक हवेली 'बेगम महल' में उम्रदराज अमिताभ बच्चन यानी मिर्जा अपनी पत्नी बेगम उनके नौकरो के साथ रहते हैं. इसी हवेली में कुछ किराएदार हैं जिसमें से एक है बांके रस्तोगी और इनका परिवार. मिर्जा को हमेशा पैसों की किल्लत रहती और वो हमेशा इन किराएदारों से किराए का तकाजा करता रहता है. बांके के साथ मिर्जा का छतीस का आंकड़ा है.

मिर्जा, हवेली पर कब्जा करने और किराएदारों को भगाने के लिए हर तिकड़म लगाता है, लेकिन कोर्ट कचेरी का चक्कर उससे फंसा देता है. तभी पुरातत्व विभाग भी एक नेता के लिए हवेली पर कब्जा करने आ जाते है और बांके भी एक बिल्डर को ले आता है. ऐसे में हवेली किसे मिलेगी और कौन हाथ मलता रह जाएगा, यही देखने वाली बात है.

अभिनय

फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक अमिताभ बच्चन छाए हैं और मिर्जा के किरदार को बड़ी ही खूबसूरती से उन्होंने पेश किया है. अमिताभ ने अपनी चिर-परिचित आवाज को बदलने से लेकर कूबड़ निकालकर मिर्जा के किरदार को जीवंत कर दिया है. वहीं अब तक हमेशा दिल्ली के लौंडो वाले किरदार निभाने वाले आयुष्मान खुराना इस बार एक देहाती किरदार निभा रहे हैं. लखनऊ के एक दुकानदार का लहजा और बॉडी लेंग्वेज उन्होंने बखूबी पकड़ा है.

बाकी कलकारों में बृजेश काला और विजय राज ने अपने अभिनय से फिल्म में हास्यरस डाला है. लेकिन फिल्म का मुख्य आकर्षण है बेगम के किरदार में अभिनेत्री फारुख जाफर. पीपली लाइव में आपने इन्हें देखा था और ये मुजफ्फर अली की फिल्म उमराव जान का भी हिस्सा रह चुकी हैं.

फिल्म में कोई मुख्य हीरोइन नहीं लेकिन आयुष्मान की बहन गुड्डो के किरदार में कई वेब सीरीज में दिखने वालीं सृष्टि श्रीवास्तव का अभिनय काफी जानदार है. वहीं पर आयुष्मान के साथ उनकी प्रेमिका फौजिया के किरदार में दिखी हैं लखनऊ रंगमंच की कलकार पूर्णिमा श्रीवास्तव, जिनका रोल छोटा लेकिन मजेदार है.

निर्देशन

शूजित सिरकार का कसा हुआ निर्देशन फिल्म की खासियत है. एक बेहद सपाट कहानी को कैसे अपने सीन्स से मजेदार बनाया. एक और खास बात इस पुरुष प्रधान फिल्म में ये है कि महिला किरदारों को काफी सशक्त दिखाया है. यूं तो फिल्म की कहानी अमिताभ और आयुष्मान के इर्द-गिर्द घूमती है. लेकिन ये किरदार मूर्खता भरे हैं. वहीं पर महिला किरदारों को तेज तर्रार और बुद्धिमान दिखाया गया है. फिर चाहे वो बेगम हो, गुड्डो हो या फिर वो आयुष्मान की प्रेमिका फौजिया.
 
संगीत

फिल्म में गाने सिचुएशनल हैं, लेकिन शांतनु मोइत्रा ने फिल्म के देसी रूप के हिसाब से लोक गीत पर आधारित संगीत बनाया है. फिल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक का उल्लेख करना आवशयक है. जो एक सीन से दूसरे सीन को जोड़ने के साथ-साथ और कलाकरों के अभिनय को गति प्रदान करता है.

शूजित सिरकार ने फिल्म को बिल्कुल अलग फॉर्मेट में पेश किया है, जो आम फिल्मों से अलग है कुछ-कुछ सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी की तरह है. फिल्म तो जरूर है पर अलग टाइप की, जिसमें हंसी नहीं आती. लगता है कि बांके और मिर्जा के बीच चूहे-बिल्ली का खेल होगा. टॉम और जेरी की तरह पर ऐसा होता नहीं है.
 
बीच में फिल्म के गति थोड़ी-थोड़ी थम जाती है पर अंत में फिल्म गति पकड़ लेती है. और क्लाइमेक्स बहुत ही मजेदार है. कुल मिलकर मनोरंजन की दृष्टि और निर्देशन के आधार पर फिल्म गुलाबो सिताबो औसत से थोड़ी ज्यादा है, पर बेहतरीन नहीं. लेकिन फिल्म देखकर लोगों के चेहरों पर मुस्कान जरूर आएगी.
 

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