क्षेत्रीय पार्टियों के हाथ में हो सकती है दिल्ली की सत्ता की चाबी

 
नई दिल्ली 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण की ओर है. 483 सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुके हैं और अब बाकी बची 60 सीटों के लिए सातवें चरण का मतदान होना है. अब जैसे-जैसे चुनाव नतीजों का दिन नजदीक आ रहा है, हर कोई यही सोच रहा है कि क्या केंद्र में किसी एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार बनेगी या फिर खंडित जनादेश मिलेगा और सरकार बनाने के लिए तीसरे चुनावी विकल्प यानी गठबंधन का सहारा लिया जाएगा?

भाजपा को 2014 में भारी बहुमत हासिल हुआ था और एनडीए गठबंधन की सरकार बनी थी. इसके पहले ऐसा भारी बहुमत 1984 में कांग्रेस को मिला था. उसके करीब 30 सालों बाद ऐसा हुआ जब किसी पार्टी को केंद्र में पूर्ण बहुमत मिला. इन 30 सालों में ज्यादातर तीसरे विकल्प का ही सहारा लिया गया, जहां क्षेत्रीय और छोटे दल ही सरकार बनाने के लिए अहम भूमिका में रहे.

इस बार भी ऐसा लग रहा है कि सरकार बनाने के लिए जरूरी सीटें ला पाना किसी एक पार्टी के लिए मुश्किल होगा. ऐसा क्यों होगा, इसका जवाब पिछले तीन दशक के दौरान पार्टियों के प्रदर्शन में छिपा है.

1989 से 2014 तक केंद्र में गठबंधन सरकारें रही हैं. इस दौरान कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा, जो कि धीरे-धीरे कमजोर हुई जबकि उन्हीं सालों में भाजपा मजबूत होती गई. इसके अलावा एक और बड़ा परिवर्तन आया. राज्य स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों का मजबूत उभार हुआ और उन्होंने केंद्र में सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई.

पिछले तीन दशक में क्षेत्रीय दलों की ताकत काफी बढ़ी है. क्षेत्रीय और छोटे राष्ट्रीय दलों का वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या 1996 के बाद खास तौर से बढ़ी. यहां तक कि 2014 में जब भाजपा को भारी बहुमत मिला, तब भी क्षेत्रीय पार्टियों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पढ़ा.
 
बीजेपी और कांग्रेस में उतार-चढ़ाव

यह दिलचस्प है कि पिछले कुछ चुनावों में दो सबसे बड़ी पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस की ही सीट संख्या में उतार-चढ़ाव देखने को मिला. भाजपा को 2009 में 116 सीटें मिली थीं, जबकि 2014 में 282 सीटें मिलीं. भाजपा को 166 सीटों की ये बढ़त कांग्रेस के 162 सीटों के नुकसान से मिली. कांग्रेस को 2009 में 206 मिली थीं, जबकि 2014 में सिर्फ 44 सीटें मिलीं. अगर उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो त​था​कथित मोदी लहर से क्षेत्रीय पार्टियों पर कोई असर नहीं पड़ा. अगर भाजपा, कांग्रेस, लेफ्ट और निर्दलीय प्रत्याशियों को हटा दें, तो 1998 से क्षेत्रीय दलों का वोट शेयर 40 फीसदी रहा है. 2014 में यह एक फीसदी और बढ़ गया.  
 
छोटे दल, बड़ी भूमिका
देश के 13 राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की मजबूत उपस्थिति है. ये राज्य हैं- असम, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल. इन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां न सिर्फ अहम भूमिका में हैं, बल्कि लोकसभा चुनाव और केंद्र सरकार के गठन में भी वे निर्णायक भूमिका निभाती हैं. अगर हम राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों के वोट शेयर पर गौर करें तो यह बढ़ा ही है.

पिछले दो लोकसभा चुनाव (2009 और 2014) और 2014 के बाद हुए विधानसभा चुनावों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि एआईएडीएमके, एआईटीसी, बीजेडी, आरजेडी, शिवसेना, टीडीपी, टीआरएस जैसी प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों का वोट प्रतिशत 2009 के मुकाबले 2014 में बढ़ा है.

इसके बाद हम देखते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हालिया विधानसभा चुनाव में ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का वोट शेयर कम नहीं हुआ है. हालांकि, एआईएडीएमके, एलजेपी, एसएडी और शिवसेना का वोट प्रतिशत जरूर कम हुआ है, लेकिन यह बेहद मामूली रहा. दरअसल, 2014 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कुछ पार्टियों जैसे डीएमके, जेडी(एस) और जेएमएम के वोट शेयर में काफी बढ़ोतरी हुई है. 
2019 में क्या होगा?

जनता के बीच से आने वाली ज्यादातर रिपोर्ट कहती हैं कि इस चुनाव में 2014 की तरह कोई 'लहर' नहीं है और न ही पक्ष या विपक्ष की तरफ कोई खास रुझान देखने को मिल रहा है. इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि जनादेश कैसा होगा, लेकिन उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कह सकते हैं ज्यादा संभावना यही है कि क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत स्थिति में होंगी.

इस चुनाव में भी क्षेत्रीय पार्टियों के प्रदर्शन में ज्यादा अंतर नहीं होगा, न ही उनका वोट बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों की ओर जाएगा. यहां ये दिलचस्प बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु आदि कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां पर बदलाव के तहत वोट राष्ट्रीय पार्टियों की जगह क्षेत्रीय पार्टियों के बीच में ही शिफ्ट होता है.

2014 के चुनाव में ज्यादातर राज्यों में बहुको​णीय मुकाबला हुआ था. लेकिन इस चुनाव में राज्यों के स्तर पर विभिन्न गठबंधनों के चलते ज्यादातर आमने-सामने का मुकाबला है और क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत होती दिख रही हैं. अगर उनका समीकरण काम करेगा तो 2019 में उनका प्रदर्शन और बेहतर रह सकता है.  

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