कुंभ: हज यात्रा से किन्नर अखाड़े का नेतृत्व, गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बनीं भवानी

 
प्रयागराज 

जब वह 13 साल की हुईं तो उनके परिवार और दोस्तों को उनकी असली पहचान के बारे में मालूम हुआ कि वह एक किन्नर हैं। इसके बाद से चिरपी भवानी का जीवन कभी पहले जैसा नहीं रहा। उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। उनके घरवाले भी उनसे शर्मिंदगी महसूस करते थे। एक साल बाद चिरपी ने घर छोड़ दिया और फिर कभी वापस लौटकर नहीं गईं। 

उनकी यात्रा ने उन्हें एक दूसरे धर्म से जोड़ा और कुछ समय बाद वह मक्का पहुंच गईं। इसके कुछ साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने जब तीसरे जेंडर को पहचान दी तो यहीं से उनके जीवन में अहम मोड़ आया। भवानी आज संभवत: एकमात्र हिंदू साध्वी होंगी, जिन्हें हाजी का पद मिलने वाला है। 2015 में उज्जैन कुंभ से पहले भवानी ने किन्नर अखाड़े की नींव रखी थी, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने इसे एक अलग 14वें अखाड़े का दर्जा देने से इनकार कर दिया, जिससे उन्हें शाही स्नान में शामिल होने का मौका नहीं मिल सका। 
 
धीरे-धीरे 2017 तक किन्नर अखाड़े को पहचान और सम्मान मिला, भवानी उत्तर भारत के लिए अपने अखाड़े की महामंडलेश्वर बनीं। इस साल कुंभ से पहले, जूना अखाड़े ने किन्नर अखाड़े को अपने विंग के रूप में खुद में शामिल कर लिया और इस महीने शाही स्नान के लिए किन्नर अखाड़े को भी मौका मिला। 

जीवन की कठिन सच्चाइयों का किया सामना 
भवानी अपने संघर्ष को याद करते हुए कहती हैं, 'पहचान के संकट का सामना करना आसान नहीं है। मैं अपने आस-पास कई लोगों के लिए अनजान बन गई जबकि मेरी कोई गलती नहीं थी।' भवानी सिर्फ 14 साल की थीं जब वह घर से भाग गई थीं। अगले कुछ साल उन्होंने जीवन की कठिन सच्चाइयों का सामना किया। 

उन्हें उम्मीद की रोशनी तब मिली जब किन्नर गुरु हाजी नूरी से 2007 में उनकी मुलाकात हुई और उनके नामकरण के साथ भवानी के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। दुनिया के लिए वह शबनम बन गईं जो दिल्ली के कुलीन वर्ग के घरों के दरवाजे पर गाने गाती थीं। जल्द ही, उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने के साथ उनके प्रतिद्वंद्वी भी तैयार हो गए जो उन पर हमले करने के मौके ढूंढते थे। 
 

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