उत्तराखंड में पहाड़ों से लोक देवता भी कर रहे पलायन

उत्तराखंड 
उत्तराखंड में गांवों के लोक देवता भी अब पलायन करने लगे हैं। कुमाऊं के गांव में बचे चंद *परिवारों के पलायन के बाद पहाड़ों पर लोक देवताओं के मूलस्थान संकट में हैं। हालात ये हैं कि मंदिरों में सुबह-शाम दीपक जलाने के लिए भी लोग नहीं हैं। दशकों पहले पलायन कर चुके लोग इष्ट देवताओं के मंदिरों को भी तराई-भाबर में स्थापित करने लगे हैं।

700 से अधिक गांव पूरी तरह खाली : उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2011 के बाद से अब तक 700 से अधिक गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं। दो दशकों से पलायन पर अध्ययन कर रहे कुमाऊं विवि के प्रोफेसर रघुवीर चंद कहते हैं कि पहले लोग साल में एक बार लोकदेवता को पूजने के लिए मूल गांव आते थे, लेकिन अब यह प्रवृत्ति भी खत्म हो रही है। इसकी वजह गांव में बचे इक्का-दुक्का परिवारों का भी पलायन कर जाना है। प्रोफेसर चंद बताते हैं कि पहले यही परिवार प्रवासियों के लिए गांव में पूजा-पाठ का इंतजाम करते थे। इनके गांव छोड़ने के बाद लोक देवताओं को विस्थापित करना लोगों की मजबूरी हो गया है। .

नैनीताल-ऊधमसिंह नगर आकर बसे लोक देवता: मान्यता के अनुसार पहाड़ में जंगली जानवरों, आपदा जैसे खतरों से लोगों और उनकी फसलों की रक्षा करने वाले लोक देवताओं के सबसे अधिक मंदिर अब नैनीताल जिले के मैदानी हिस्से में हैं।

इतिहासकार डॉ. प्रयाग जोशी बताते हैं कि देवताओं का यह पलायन राज्य बनने के बाद *अधिक तेजी से बढ़ा है। पिछले सालों में सबसे अधिक मंदिर हल्द्वानी, कालाढूंगी, लालकुआं और रामनगर में स्थापित हुए हैं। ऊधमसिंह नगर के खटीमा में बड़ी संख्या में पहाड़ के लोकदेवताओं के मंदिर हैं। 

कुमाऊं में 200 लोकदेवता
इतिहासकार डॉ. प्रयाग जोशी कहते हैं कि कुमाऊं में मलयनाथ, हरसेम, छुरमल, एक हतीया, घटोरिया, लाटा देवता, गोल्ज्यू समेत 200 से अधिक लोक देवता हैं। इनमें से अधिकांश के मंदिर मैदानों में स्थापित हो चुके हैं।.

लालकुआं में भूमिया देवता
पहाड़ों में भूमिया देवता के मंदिर हर गांव में होते थे। उन्हें भूमि का रक्षक माना जाता है। डॉ. जोशी कहते हैं कि नैनीताल के लालकुआं में बड़ी संख्या में लोग आकर बसे। इसलिए ज्यादातर जगह भूमिया देवता के मंदिर हैं।.
 

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