इटावा लोकसभा: 28 साल पहले पड़ी गठबंधन की नींव, अब ‘गठबंधन अगेन’ की प्रयोगशाला

 
इटावा 
'मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम' के नारे तब हवा में तैरने लगे जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने 1991 एक साथ आकर राम मंदिर आंदोलन की लहर में बीजेपी को थाम दिया था। 28 सालों के अंतराल के बाद दोनों दलों की नई पीढ़ी फिर से हाथ मिलाकर बीजेपी को रोकने की कोशिश में हैं, जिसकी प्रयोगशाला इस बार फिर से इटावा लोकसभा सीट अपने बदले समीकरणों के साथ है।  
वर्ष 1991 में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने इटावा लोकसभा से किस्मत आजमाई थी। 1988 में इलाहाबाद, तो 1989 में पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से हार का सामना करने के बाद कांशीराम ने मुलायम के गृहक्षेत्र और यादवों के गढ़ मानी जाने वाले इटावा सीट से चुनाव मैदान में उतरे और मुलायम के सहयोग से संसद में पहुंचने में सफल भी रहे। उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी को 20 हजार वोटों से हराया था। 

इटावा का गणित
अब 2019 में दोनों दलों का नेतृत्व अखिलेश यादव और मायावती के हाथों में आ चुका है, जो कि पार्टी के संस्थापकों के सामाजिक प्रयोग को फिर से साथ मिलकर आजमा रहे हैं। वर्तमान के इटावा लोकसभा क्षेत्र में काफी सामाजिक-जातिगत बदलाव आया है। परिसीमन के बाद यादव वोटों की बड़ी संख्या बगल की मैनपुरी सीट में शिफ्ट हो गई, जहां से मुलायम इस बार चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं इटावा अब सवा चार लाख दलितों की आबादी के साथ आरक्षित सीट घोषित हो चुकी है। इस सीट पर 29 अप्रैल को चौथे चरण में मतदान होना है। 

1991 में इटावा सीट पर रनर-अप रही बीजेपी ने 2014 में यहां झंडा गाड़ दिया था। इस बार आगरा के सांसद रामशंकर कठेरिया यहां से दांव आजमा रहे हैं। वहीं समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद प्रेम शंकर कठेरिया के बेटे कमलेश कठेरिया महागठबंधन की तरफ से चुनावी मैदान में हैं। वहीं कांग्रेस ने वर्तमान सांसद अशोक दोहरे को टिकट दिया है, जो बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं। 

सभी दलों ने लगाया पूरा जोर
एक तरफ जहां गठबंधन की निगाहें दलित-यादव-मुस्लिम मतदाताओं पर टिकी हैं, तो वहीं बीजेपी सवर्ण वोटर्स के साथ ही अन्य जातियों में सेंधमारी की कोशिश में लगी हुई है। ग्रामीण आबादी जहां गठबंधन के पक्ष में वोट कर सकती है, तो वहीं शहरी आबादी की जुबान पर मोदी-मोदी ही छाया हुआ है। 
 

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