छिन्दवाड़ा की शान है बड़ा गणपति

छिन्दवाड़ा की शान है बड़ा गणपति

छिन्दवाड़ा की शान है बड़ा गणपति बड़ा गणपति के नाम से ख्याति प्राप्त श्री सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल ट्रस्ट बरारीपुरा का नाम जिले के बड़े बुजुर्ग जानते है। इस मंडल की स्थापना वर्ष 1922 में हुई थी । स्वतंत्रता आंदोलन के समय बरारीपुरा के नवयुवकों ने गणेशोत्सव की शुरूआत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से प्रेरणा लेकर की थी । गणेश प्रतिमा की स्थापना का श्रेय संस्था के संस्थापक स्व. नारायणराव थोरात उर्फ तात्याजी थोरात को जाता है । छिंदवाड़ा नगर का यह सर्वप्रथम सार्वजनिक गणेशोत्सव था, इसलिए इसे बड़ा गणपति के नाम से जाना जाता है। एक कारण यह भी था कि, मात्र बरारीपुरा में ही विशाल गणेश प्रतिमा स्थापित होती थी इसलिए भी लोगों ने इसे बड़ा गणपति कहना शुरू किया।

इस गणेश मंडल की खासियत यह थी कि, आजादी के आंदोलन के समय यहां स्थापित की जाने वाली मूर्ति समिति के सदस्य ही बनाते थे । उन दिनों की याद करते हुए स्वर्गीय नारायण थोरात के परिजन बताते हैं कि गणेशोत्सव का स्वरूप बिल्कुल अलग हुआ करता था, तब न तो इतनी साज-सज्जा होती थी न ही ताम-झाम । लोग श्रद्धा और विश्वास के साथ गणेशोत्सव मनाने आते थे । बड़ा गणपति देखने वालों में ग्रामीणों की संख्या हजारों में होती थी लेकिन अब मेला सिमटता जा रहा है । 1922 से शुरू हुए बड़ा गणपति उत्सव में नया स्वरूप 1939 में आया । मंडल ने इस साल से दुर्गोत्सव मनाना भी शुरू किया । यह दुर्गा उत्सव पहले माता मंदिर बरारीपुरा में आयोजित होता था । साधनों एवं सहयोग के अभाव में वहां उत्सव मनाने में व्यवहारिक कठिनाईयां आने लगी । इसके बाद दोनों उत्सव (बड़ा गणपति बाड़ा) यहां मनाए जाने लगे । वर्ष 1962 में इस मंडल ने तंसरावाले पटेल ने तीन सौ रूपये में मंडल परिसर (बड़ा गणपति का बाड़ा) खरीद लिया । एक पुराना भवन व कुछ खुला मैदान सम्मिलित था । 1975 में विनायकराव कराडे और भोपाटकर, केशवराव गव्हाणे के सहयोग से दो दुकानों का निर्माण हुआ। इसके बाद लगातार तरक्की करता हुआ मंडल आज भी अपनी गरिमा बनाए हुए है। आप को पता है की यह मंडल देश की आजादी से पूर्व का है जब लोकमान्य तिलक जी ने गणेश उत्सव मानने की पुरे देश में प्रेरणा दी थी जिसके जरिए उत्सव में एक जगह पर एकत्र हो सके और एक दूसरे मेल जोल हो सके और आजादी की लड़ाई मजबूती से लड़ी जा सके इस ही शिक्षा लेकर बड़ा गणपति की स्थापना की गई और जो परंपरा उस समय बनाई गई उसे समय के साथ नई पीढ़ी ने भी इस परंपरा को आज जीवंत रखा आज लगभग 102 वर्ष हो गए जो आज भी निरंतर बिना किसी रुकवट नई पीढ़ी आगे ले जा रही है।