त्रिदेवों के इस अनोखे खेल से उत्पन्न हुए भगवान दत्तात्रेय

मार्गशीर्ष माह धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। शुभ मांगलिक कार्य भी इसी माह में संपन्न किए जाते हैं। मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा भी काफी शुभ होती है। इस दिन भगवान दत्तात्रेय की जयंती मनाई जाती है। धार्मिक मान्यतानुसार, इसी दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्म प्रदोषकाल में हुआ था। इस बार 11 दिसंबर 2019 को मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा के दिन भगवान दत्तात्रेय की जयंती मनाई जाएगी। आइए जानते हैं भगवान दत्तात्रेय की जीवनकथा और महत्व के बारे मेंं।

त्रिदेव का स्वरूप है निहित
भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का स्वरूप माने गए हैं। भगवान दत्तात्रेय को श्री गुरुदेवदत्त भी कहा जाता है। इस दिन भगवान दत्तात्रेय के मंदिरों में पूजा-अर्चना के लिए भारी संख्या में भक्त पहुंचते हैं। मान्यतानुसार, दत्तात्रेय जी ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान दत्त के नाम पर ही दत्त संप्रदाय उदय हुआ था। दक्षिण भारत में दत्तात्रेय भगवान के कई प्रसिद्ध मंदिर भी हैं। ऐसी मान्यता है कि मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय की विधिवत पूजन और व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भगवान दत्तात्रेय के संबंध में प्रचलित है कि इनके 3 सिर हैं और 6 भुजाएं हैं। इनमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का ही संयुक्त रूप से अंश मौजूद है। दत्तात्रेय जयंती के दिन दत्तात्रेय जी के बालरूप की पूजा करने का विधान है।

इस तरह मिला दत्तात्रेय नाम
महायोगीश्वर दत्तात्रेय मुख्यतया भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। जिस वजह से इस दिन खूब धूमधाम से दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भभगवत के अनुसार, पुत्र प्राप्ति की कामना करते हुए महर्षि अत्रि ने व्रत किया था जिसके फलस्वरूप भगवान विष्णु ने महर्षि अत्रि से कहा, ‘दत्तो मयाहमिति यद् भगवान्‌ स दत्तः’ अर्थात मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर भगवान विष्णु ने ही अत्रि के पुत्र रूप में जन्म लिया और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय के नाम से जाने जाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से यह दत्तात्रेय के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनकी माता महान पतिव्रता अनसुइया देवी थीं, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति माने जाते हैं।

देवी अनसुइया के सतीत्व की परीक्षा
पौराणिक कथानुसार, माता लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। तब एक दिन देवर्षि नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी से जाकर बोले कि अत्रि ऋषि की पत्नी अनसुइया के सामने आपको सतीत्व कुछ भी नहीं है। ऐसा सुनकर तीनों देवियों ने अपने अपने स्वामी से देवी अनुइया के पातिव्रता धर्म की परीक्षा करने को कहा। तब तीनों देव साधु के भेष में अत्रिमुनि के आश्रम पहुंचते हैं। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को द्वार पर देखकर देवी अनसुइया उन्हें प्रणाम कर अर्घ्य, कंदमूलादि देती हैं किंतु त्रिदेव देवी से कहते हैं कि हम तब तक आपका आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराएंगी।

इस तरह विष्णु के रूप में जन्में भगवान दत्तात्रेय
देवी अनसुइया पतिव्रता स्त्री होती हैं वह इस धर्मसंकट से निकलने के लिए भगवान नारायण का ध्यान करती हैं और अपने पतिदेव को स्मरण करती हैं फिर इसे भगवान की लीला समझकर देवी अनसुइया बोलती हैं, यदि मेरा पतिव्रता धर्म सत्य है तो यह तीनों साधु 6-6 माह के शिशु में परिवर्तित हो जाएं। बस देवी के इतना कहते ही तीनों देव 6 माह के शिशु के रूप में बदलकर रोने लगते हैं। तब देवी अनसुइया उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराती हैं। ऐसे ही कुछ समय बीत जाता है, इधर देवलोक में त्रिदेव के वापस न आने पर तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं, तब नारद जी आते हैं और उन्हें सब बताते हैं। फिर तीनों देवियां देवी अनसुइया के पास आती हैं और उन्होंने उनसे अपनी गलती की क्षमा मांगती हैं। देवी अनसुइया ने अपने पतिव्रता धर्म से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर देती हैं। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसुइया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं- आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु कहकर तीनों देव प्रस्थान कर जाते हैं। आगे चलकर तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट होते हैं। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।

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