कांग्रेस के हाथ से फिसल कर बीजेपी के पास जा रही हैं आरक्षित सीटें

बेंगलुरु
चुनाव आयोग से मिले आंकड़े बताते हैं कि 1989 के बाद से हुए आठ चुनावों में आरक्षित सीटों पर कांग्रेस की तुलना में बीजेपी को ज्‍यादा बार जीत हासिल हुई है। इससे पहले माना जाता था कि परंपरागत तौर पर अनुसूचित जाति, जनजाति समुदाय कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं।

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, 1989 से 2014 के बीच आरक्षित सीटों से चुने गए 976 सांसदों में से 30 प्रतिशत बीजेपी से हैं और 28 प्रतिशत कांग्रेस से। चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे अहम वजह है अपर कास्‍ट के वोटरों का कांग्रेस से दूर होना। इन वोटरों की आरक्षित सीटों में अहम भूमिका होती है।

राजनीतिक विश्‍लेषक एस महादेवप्रकाश कहते हैं, 'आप देखेंगे तो पाएंगे कि एससी और एसटी जनसंख्‍या औसतन 40 से 45 प्रतिशत से ज्‍यादा नहीं होती। ऐसे में दूसरे वर्ग के वोट ज्‍यादा अहम हो जाते हैं।'

यह एक जानामाना तथ्‍य है कि 1989 के बाद से कांग्रेस की लोकप्रियता में कमी आनी शुरू हुई। बीजेपी की परफॉर्मेंस के लिहाज से 1989 का अहम स्‍थान है। इसी साल से कांग्रेस ने धीरे-धीरे अपर कास्‍ट वोट खोने शुरू कर दिए थे।

आशीष नंदी राजनीतिक मनोवैज्ञानिक हैं, वह कहते हैं, 'अपर कास्‍ट वोट की तरह एससी और एसटी वोट एकजुट नहीं रहते हैं। आमतौर पर आरक्षित सीट पर कई एससी और एसटी कैंडिडेट होते हैं इसलिए इनके वोट बट जाते हैं, और जो पार्टी दूसरे वर्गों के वोट पाने में कामयाब रहती है जीत उसी की होती है।'

पिछले आठ चुनावों में बीजेपी ने 1996, 1998, 1999, 2004 और 2014 में सबसे ज्‍यादा आरक्षित सीटें जीतीं। 2014 में तो बीजेपी के 66 सांसद आरक्षित सीटों से जीतकर आए। किसी भी एक पार्टी को इतनी ज्‍यादा आरक्षित सीटें नहीं मिली हैं।

हालांकि कर्नाटक में तस्‍वीर का दूसरा रुख देखने में आता है। यहां 38 सीटों में से 50 फीसद सीटें कांग्रेस ने जीती हैं, जबकि बीजेपी के हिस्‍से में 31.6 फीसद आईं। राज्‍य में बीजेपी के बढ़ते असर के बाद भी कांग्रेस ने अधिकतर आरक्षित सीटों पर कब्‍जा बनाए रखा है। इसके लिए कांग्रेस सरकारों की अनुसूचित जाति, जनजाति के पक्ष में बनी नीतियां जिम्‍मेदार हैं।

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