कहीं नजर नहीं आ रहा एक दशक पहले वाला चुनाव प्रचार

जबलपुर
चुनावी जंग में इस बार न तो शोर मचाने वाली दुंदुभी बज रही है, न ही एक दशक पहले वाला चुनाव प्रचार कहीं नजर आ रहा है। चुनावी माहौल देंखें तो न तो 84 जैसी कांग्रेस समर्थित लहर है, और न ही 14 जैसा मोदी करंट। जनता पहली बार इतनी उदासीन नजर आ रही है। बावजूद इसके दोनों खेमों में जीत के दावे हो रहे हैं। कोई लहर की बात कर रहा है तो कोई करंट की।

 भाजपाई खेमा का दावा है कि देश में पिछले चुनाव जैसा मोदी करंट है तो वहीं कांग्रेसी खेमे का कहना है कि मोदी की आक्रामक छवि भाजपा के गले की फांस बन रही है। हालांकि परिणाम बताएंगे कि मोदी लहर का प्रभाव रहा या भाजपाई बम इंडिया शाइनिंग के नारे की तरह फू टेगा और कांग्रेस नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन सत्ता में बैठेगा। जबलपुर में चूंकि तीसरा कोई दमदार प्रत्याशी नहीं है, इसलिए मुकाबला राकेश-विवेक में ही है।

कुछ कहे बगैर मुस्कराने वाले मतादताओं की मुस्कराहट प्रत्याशियों की जान निकाल रही है। पांच साल तक क्षेत्र की जनता से दूरियां बनाने वाले जनप्रतिनिधि एक बार फिर उन्हीं मतदाताओं के दरवाजे पर पहुंच रहे हैं, जिनकी बेहतरी के वादे पिछले चुनाव में किए थे। ऐसे में मतदाता रहस्यमयी मुस्कान से उनका स्वागत कर रहे हैं। विपक्षी प्रत्याशियों को भी मतदाता अपनी उम्मीदों की कसौटी पर कस रहे हैं। लिहाजा चुनावी गणित के आकलन में राजनीतिक पंडितों को भी पसीना आ रहा है।

जबलपुर लोकसभा की आठों विधानसभा सीटों में से अधिकांश में जातीय समीकरण भी जीत-हार तय करने में प्रभावी भूमिका में हैं। पूर्व-पश्चिम-उत्तर सीट चूंकि कांग्रेस ने भाजपा से सीट छीनी है, अत: उसे भारी लीड की संभावना दिख रही है। वहीं भाजपा के पराजित प्रत्याशी कोशिश कर रहे हैं कि अपनी विस से कांग्रेस को हराकर वे अपने प्रभाव का परिचय पार्टी संगठन को दें। पाटन-पनागर-सिहोरा-केंट में भाजपा है, यहां ऊंट किस करवट बैठेगा, इस पर सबकी नजर रहेंगी।

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